ब्लॉग: राष्ट्रीय शिक्षा नीति क्या अपने लक्ष्य को कर पा रही है हासिल ?

By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Updated: July 29, 2024 10:19 IST2024-07-29T10:16:52+5:302024-07-29T10:19:08+5:30

बीते चार सालों में सत्ता प्रतिष्ठानों से अभिप्रेरित कई अभियानों, योजनाओं और कार्यक्रमों के माध्यम से इस शिक्षा नीति को कार्यरूप में परिणत करने की दिशा में प्रयास किए गए हैं।

Is National Education Policy achieve its own aim | ब्लॉग: राष्ट्रीय शिक्षा नीति क्या अपने लक्ष्य को कर पा रही है हासिल ?

फोटो क्रेडिट- एक्स

Highlightsराष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 ने स्पष्ट तौर पर स्वीकार किया हैबेहतर शिक्षा के लिए वार्षिक बजट में 6 प्रतिशत का आवंटन सुनिश्चित किया जाना आवश्यक किंतु क्रियान्वयन के स्तर पर 2024 के शिक्षा बजट को देखें तो यह 3%

डॉ. संजय शर्मा: 29 जुलाई को 21वीं सदी की पहली शिक्षा नीति के चार साल पूरे हो रहे हैं, वैसे देखा जाए तो किसी भी बहु-अपेक्षीय दस्तावेज का मूल्यांकन करने के लिए यह अवधि अनुकूल नहीं मानी जानी चाहिए किंतु क्रियान्वयन के संदर्भ में आवश्यक निहितार्थ-सूत्र-मार्ग  से दिशा और दशा का अनुमान अवश्य किया जा सकता है।

अपने कलेवर, चिंताओं और संस्तुतियों में नि:संदेह यह शिक्षा नीति भारतीय मन, मानस और संस्कृति में व्याप्त औपनिवेशिक मानसिक जड़ताओं को तोड़ने की जिजीविषा का व्यावहारिक संकल्प-पत्र है, जिसे एक प्रोजेक्ट ऑफ अंडरस्टैंडिंग के रूप में कार्यरूप दिया जाना प्रस्तावित था।

बीते चार सालों में सत्ता प्रतिष्ठानों से अभिप्रेरित कई अभियानों, योजनाओं और कार्यक्रमों के माध्यम से इस शिक्षा नीति को कार्यरूप में परिणत करने की दिशा में प्रयास किए गए हैं। यह विडंबना ही है कि इन सभी प्रयासों में नीति की मूल मंशा को ‘समझने’ के बजाय उसको ‘समझाने’ का प्रयास ही हावी रहा है।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 ने स्पष्ट तौर पर स्वीकार किया है कि बेहतर शिक्षा के लिए वार्षिक बजट में 6 प्रतिशत का आवंटन सुनिश्चित किया जाना आवश्यक है, किंतु क्रियान्वयन के स्तर पर 2024 के शिक्षा बजट को देखें तो यह  तीन प्रतिशत ही है। ऐसे में सवाल लाजमी है कि क्या गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मुहैया कराने की संवैधानिक और नीतिगत प्रतिबद्धता भारत के भावी नागरिकों के लिए दिवास्वप्न ही बनी रहेगी?

हालिया वर्षों में शिक्षा संस्थानों में मौजूद ‘संरचनात्मक जड़ता, बौद्धिक पदानुक्रम एवं सीखने की संस्कृति’ का अभाव और भी गहरा गया है।  कक्षा में क्या पढ़ना और कैसे पढ़ाना है, अब यह विमर्श भी शिक्षक और विद्यार्थी के अपने स्थानीय संदर्भों के बजाय केंद्रीय निकायों के मुखियाओं के द्वारा सुनिश्चित होने लगा है। नि:संदेह इस तरह का बाह्य हस्तक्षेप ज्ञान-निर्मिति की सृजनात्मक एवं स्वाभाविक प्रक्रिया को न केवल कमजोर बनाता है बल्कि शिक्षक को सीखने-सिखाने और चिंतन करने के अवसर से भी वंचित कर देता है।

गांधीजी के अनुसार शिक्षा का अभीष्ट गैर-जरूरी जानकारी इकट्ठा करना और महज कुछ विदेशी भाषा सीखना नहीं है, बल्कि व्यक्ति के जीवन और समाज को बदल सके, उस चेतना का विकास करना है।

शिक्षा नीति के बीते चार साल हमें आत्मावलोकन करने का एक अवसर देते हैं, जहां हम यह विचार करें कि वैज्ञानिक चेतना और आलोचनात्मक चिंतन के मूलगामी विचार के बरक्स हम कहीं एक ऐसी पीढ़ी का तो निर्माण नहीं कर रहे जो भ्रमित, मूक और अनुगमन करने वाली हो? जो रंग-रूप, पहनावे  और बोलने में भारतीय सनातन मूल्यों का आभास दे किंतु अपने चिंतन, कार्य व्यवहार और आकांक्षाओं में पूंजीवादी, हिंसक और मशीनी हो?

Web Title: Is National Education Policy achieve its own aim

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