एन. के. सिंह का ब्लॉगः गोदामों में भरपूर अनाज, फिर भुखमरी क्यों?
By एनके सिंह | Published: October 19, 2019 07:12 AM2019-10-19T07:12:19+5:302019-10-19T07:12:19+5:30
भारत से दो साल बाद कम्युनिस्ट शासन हासिल करने वाला चीन 25 वें स्थान पर जबकि 150 साल तक औपनिवेशिक शासन और नस्लभेद ङोलने के बाद सन 1994 में गणतंत्न बना द. अफ्रीका 59वें पायदान पर है. सन 2015 में भारत 93 वें स्थान पर था. यानी तब से स्थिति बदतर हुई है.
भारत में पिछले सात दशक से लोकतंत्न है यानी जनता का शासन अर्थात जनता जैसा चाहती है वैसा शासक. वर्तमान सरकार, जो छह साल से सत्ता में है, के खाद्य मंत्नालय ने विदेश मंत्नालय से गुहार लगाई है कि कुछ गरीब देश तलाशो जिन्हें ‘मानवीयता के आधार पर’ देश के गोदामों में नहीं समा रहे पुराने अनाज के स्टॉक को मुफ्त मदद के रूप में भेजा जा सके (दूसरा विकल्प इन्हें फेंकना है क्योंकि इसके रखरखाव पर खर्च बढ़ता जा रहा है और नई फसल आने वाली है).
उधर भारत तीन दिन पहले जारी ग्लोबल भूख इंडेक्स पर आज भी दुनिया के 117 देशों में 102 स्थान पर है. छोटे मुल्क जैसे 70 साल में 29 साल सैनिक शासन में रहा पाकिस्तान हमसे बेहतर 94वें पायदान पर, इसी से 48 साल पहले निकला बांग्लादेश 88 वें, दशकों तक गृह युद्ध झेलता श्रीलंका लगातार भुखमरी खत्म करता 66वें और सदियों की राजशाही से अभी भी पूरी तरह न निकल सकने वाला नेपाल 73वें स्थान पर है.
भारत से दो साल बाद कम्युनिस्ट शासन हासिल करने वाला चीन 25 वें स्थान पर जबकि 150 साल तक औपनिवेशिक शासन और नस्लभेद ङोलने के बाद सन 1994 में गणतंत्न बना द. अफ्रीका 59वें पायदान पर है. सन 2015 में भारत 93 वें स्थान पर था. यानी तब से स्थिति बदतर हुई है.
ये अनाज आज गोदामों से नहीं भरे हैं और न ही भारत के गरीबों का कुपोषण आज शुरू हुआ है. अंग्रेजों ने जब देश छोड़ा था तो उस समय प्रति-वर्ष प्रति-व्यक्ति अनाज की खपत 135 किलो थी जो सन 1970 तक हरित क्रांति की देन के रूप में 186 किलो हो गई थी, जो आज भी लगभग वही है जबकि दाल की खपत 1970 में प्रति-व्यक्ति रोजाना 64 ग्राम थी जो आज मात्न 35 ग्राम रह गई है. इसके ठीक विपरीत दो दशक से किसानों ने भारत को खाद्य-बहुतायत वाला देश बना दिया है पर लोगों के पास खरीदने के लिए पैसे नहीं हैं.
सन 2011-12 में जब देश के गोदामों में गेहूं-चावल के भंडार बेतहाशा बढ़े तब भी तत्कालीन मनमोहन सरकार ने अफगानिस्तान को तीन लाख टन गेहूं फ्री मदद के रूप में भेजा था जो 2013-14 और उसके अगले साल भी जारी रहा. लेकिन मात्ना काफी कम थी.
याद रखें कि दो साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने अनाज भंडार की अनुपयुक्त व्यवस्था और अनाजों के भंडारण पर लगातार बढ़ने वाले खर्च, जो भारतीय खाद्य निगम कर्ज ले कर और उस पर ब्याज दे कर करता है, के चलते सलाह दी थी कि इन्हें मुफ्त में गरीबों को बांट दें. पर तब सरकार ने इसे नहीं माना.
आज भी स्थिति वही है. खाद्य भंडारण के नियम के अनुसार 1 जुलाई को अनाज भंडारण 410 लाख मीट्रिक टन से ज्यादा नहीं होना चाहिए और अगले तीन महीनों में यानी 1 सितंबर तक सार्वजनिक वितरण और अन्य माध्यमों से अनाज दे कर 300 लाख टन तक लाना चाहिए क्योंकि नए अनाज (धान) की फसल आने लगेगी. लेकिन यह भंडार इस दिन 680 टन यानी दूना था. और पुराना स्टॉक कई साल से बढ़ता ही जा रहा है.
दुनिया के 16 मुल्कों और वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में एक-तिहाई की हिस्सेदारी वाली बैंकाक में आयोजित क्षेत्नीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरईसीपी) फिर असफल रही. लेकिन भारत को भी सोचना होगा कि दुनिया से यह नहीं कह सकते कि मेरा सामान खरीदो चाहे वह महंगा ही क्यों न हो. हमें प्रतिस्पर्धा में आना ही होगा.
हर साल अनाज, दूध, सब्जियां खासकर प्याज और आलू और चीनी के उत्पादन में रिकॉर्ड बढ़ोत्तरी के बावजूद भारत की दो समस्याएं बनी हुई हैं. पहला; इस उत्पादन का हम करें क्या? अति-उत्पादन से मूल्य नीचे आने से किसान मरता है और शुगर मिल बंद होने लगते हैं, अगर उत्पादन कम हो जाते तो इस वर्ष प्याज की तरह भाव आसमान पर पहुंचने से देश के दसियों करोड़ उपभोक्ता परिवार आहत होते हैं. चूंकि देश के सबसे बड़े प्याज उत्पादक राज्य महाराष्ट्र में चुनाव थे लिहाजा सरकार ने इसके निर्यात पर रोक लगा दी.
उत्पादन बढ़े तो हम सरकार की, और चुनाव हो तो किसान-अन्नदाता, दोनों की पीठ तो थपथपा सकते हैं, लेकिन सत्य से मुंह नहीं मोड़ सकते, खासकर तब जब देश में पिछले 29 साल से हर 37 मिनट पर एक किसान आत्महत्या कर रहा हो और आज भी इसमें कोई कमी नहीं आई हो.
इन उत्पादों को हम काफी महंगे में पैदा करते हैं क्योंकि हमारी उत्पादकता नहीं बढ़ रही है केवल उत्पादन ही बढ़ रहा है. वाणिज्य मंत्नी पीयूष गोयल के इस बैठक के लिए जाने से पहले दुग्ध उत्पादक सहित अनेक जिंसों के उत्पादक संगठक मिले और मांग की कि दूध पाउडर विदेश की कंपनियों से आयात न किया जाए. उनका तर्क था कि हमारे दूध पाउडर की उत्पादन लागत जहां 240-250 रुपए प्रति किलोग्राम आती है वहीं न्यूजीलैंड का पाउडर 120 रुपए किलो का होगा जो दुग्ध उत्पादकों की कमर तोड़ देगा.
जरा गौर करें, भारत में एक गाय का औसत दूध उत्पादन वैश्विक औसत के आधे से भी कम है. फिर बढ़ते शहरीकरण के कारण चरागाहों के सिकुड़ने से मवेशियों के लिए चारे का संकट हो रहा है. गेहूं की भी स्थिति अंतर्राष्ट्रीय बाजार में पतली है क्योंकि भारतीय किसानों की लागत काफी ज्यादा है. किसानों के प्रति सहानुभूति तो होनी ही चाहिए लेकिन अवैज्ञानिक खेती से महंगे होते उत्पाद की मार उपभोक्ता क्यों झेलें?