भारत को फिर से विश्व गुरु बनाने की जरूरत, ऐसे हासिल हो सकता है ये स्थान
By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: September 5, 2018 01:28 AM2018-09-05T01:28:40+5:302018-09-05T08:33:38+5:30
प्राचीन भारत में तक्षशिला, नालंदा और पुष्पगिरि जैसे दुनिया के मशहूर शिक्षाकेंद्र थे, जहां देश और दुनिया के विभिन्न कोनों से ज्ञान हासिल करने की इच्छा रखने वाले खिंचे चले आते थे। उच्च शिक्षा की चाह में आने वाले इन छात्रों को वेदों के अलावा अन्य विषयों- जैसे कृषि, दर्शन, गणित, तीरंदाजी, सैन्य कला, शल्यक्रिया, चिकित्सा, खगोल विज्ञान, वाणिज्य, संगीत तथा नृत्य की शिक्षा प्रदान की जाती थी।
एम. वेंकैया नायडू
उपराष्ट्रपति बनने के बाद से मैंने अनेक विश्वविद्यालयों के दीक्षांत समारोह को संबोधित किया है। भारत की समृद्ध विरासत को रेखांकित करते हुए मैंने इस बारे में अपने विचार रखे हैं कि प्राचीन काल में गौरवशाली भारतीय शिक्षा किस ऊंचाई तक पहुंची हुई थी, और किस तरीके से हम अपनी शिक्षा प्रणाली में उत्कृष्टता की भावना को फिर से हासिल कर सकते हैं।
भारत युगों-युगों से शिक्षा का पारंपरिक केंद्र रहा है। शास्त्रर्थ और ज्ञान की खोज के लिए वार्तालाप की हमारे यहां एक लंबी समृद्ध परंपरा रही है। गुरु और शिष्य के बीच निरंतर रचनात्मक संवाद का उपनिषदों में स्पष्ट साक्ष्य मिलता है। हमारे देश के विचारकों और शिक्षकों ने दुनिया का सर्वश्रेष्ठ ज्ञान ग्रहण करते हुए अपने देश के लिए मार्ग निश्चित किया, जिससे भारत को ‘विश्व गुरु’ का दर्जा मिला।
20वीं सदी के सबसे प्रसिद्ध भौतिक विज्ञानी अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था, ‘‘हम भारतीयों के बहुत ऋणी हैं कि उन्होंने हमें गणना करना सिखाया, क्योंकि उसके बिना कोई भी सार्थक वैज्ञानिक खोज करना संभव नहीं हो पाता।’’ प्रसिद्ध अमेरिकी नाटककार और व्यंग्य लेखक मार्क ट्वेन ने भारत को ‘‘मानव जाति के हिंडोले, मानवीय अभिव्यक्ति के जन्मस्थान, इतिहास की जन्मदात्री, किंवदंतियों की दादी और परंपराओं की परदादी’’ के रूप में विवेचित करते हुए कहा था कि ‘‘मनुष्यता के इतिहास में हमारी सबसे मूल्यवान और ज्ञानगर्भित सामग्री सिर्फ भारत के खजाने में है।’’
भारत के गौरवशाली शिक्षा केंद्र
प्राचीन भारत में तक्षशिला, नालंदा और पुष्पगिरि जैसे दुनिया के मशहूर शिक्षाकेंद्र थे, जहां देश और दुनिया के विभिन्न कोनों से ज्ञान हासिल करने की इच्छा रखने वाले खिंचे चले आते थे। उच्च शिक्षा की चाह में आने वाले इन छात्रों को वेदों के अलावा अन्य विषयों- जैसे कृषि, दर्शन, गणित, तीरंदाजी, सैन्य कला, शल्यक्रिया, चिकित्सा, खगोल विज्ञान, वाणिज्य, संगीत तथा नृत्य की शिक्षा प्रदान की जाती थी।
सातवीं शताब्दी में व्हेनत्सांग नामक चीनी विद्वान ने बौद्ध शिक्षा के प्रसिद्ध केंद्र नालंदा में कई प्रसिद्ध बौद्ध विद्वानों के साथ अध्ययन किया था। जब वह चीन वापस लौटा तो उसके साथ संस्कृत के 657 ग्रंथ थे। सम्राट के समर्थन से उसने पूरे पूर्वी एशिया के सहकर्मियों के साथ मिलकर शियान में एक बड़े अनुवाद केंद्र की स्थापना की। अर्थशास्त्र के रचयिता चाणक्य और प्रसिद्ध आयुव्रेदिक चिकित्सक चरक तक्षशिला से ही पढ़कर निकले थे।
खुदाई में मिले हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की सभ्यता के अवशेषों ने यह साबित किया है कि भारत उस समय दुनिया में दूसरों से आगे था। भारत ने दुनिया को शून्य और दशमलव प्रणाली का अमूल्य योगदान दिया और धातु विद्या के क्षेत्र में अपनी तरक्की से अवगत कराया। परमाणु सिद्धांत की स्थापना करने वाले जॉन डॉल्टन के बहुत-बहुत पहले कणाद ऋषि ने ‘अणु’ और इसकी अविनाशी प्रकृति के बारे में बता दिया था।
सर्जरी के जनक सुश्रुत
सुश्रुत प्लास्टिक सजर्री के जनक के रूप में जाने जाते हैं। दुनिया की सभी अच्छी बातों को भारत ने ग्रहण किया है। ऋग्वेद में कहा गया है : आ नो भद्रा: क्रतवो यंतु विश्वत: अर्थात हमारे लिए सभी ओर से कल्याणकारी विचार आएं। विचारों के क्षेत्र में भारत की प्रगति के मूल में यही स्वीकृति और विचारों का अनुकूलन है। हमें किसी भी विचार का अंधानुकरण न करते हुए, विश्लेषणात्मक रुख अपनाना चाहिए।
प्रो. कोनेरू रामकृष्ण राव जैसे कई लोगों का मानना है कि भारतीय शिक्षा का पश्चिमीकरण होने की वजह से भारत के मूल विचारों का क्षरण हुआ है इसलिए हमें अपनी शिक्षा पद्धति में नई चेतना लाने की जरूरत है।
शिक्षा सीखने की दीर्घकाल तक चलने वाली प्रक्रिया है। बच्चे बेहतर ढंग से सीख सकें, इसके लिए उन्हें मातृभाषा में शिक्षा दी जानी चाहिए। मूल्याधारित शिक्षा देना समय की मांग है। अपनी परंपरा से संबंध नहीं रखने वाले शैक्षिक मॉडल का अंधानुकरण करना उचित नहीं है।
विद्या वही जो मुक्त करे
हमारे प्राचीन विचारकों ने कहा है : सा विद्या या विमुक्तये। अर्थात विद्या वह है कि जो मुक्ति प्रदान करे। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने शिक्षा के पुनर्जागरण की बात करते हुए कहा था कि ‘यह मन को भयमुक्त करने और मस्तक को ऊंचा उठाने वाली हो’। इसके लिए हमें औपनिवेशिक मानसिकता को छोड़ना चाहिए और बौद्धिक रूप से मुक्त होना चाहिए।
संस्कृत के महान कवि कालिदास ने कहा था : ‘‘ऐसा नहीं है कि पुरानी सारी चीजें अच्छी ही होती हैं। न ही हमें यह सोचना चाहिए कि सारी आधुनिक चीजें खराब हैं। विद्वान लोग सावधानीपूर्वक विचार करके निष्कर्ष निकालते हैं, जबकि मूर्ख लोग दूसरों के विचारों का अंधानुकरण करते हैं।’’
हमारे प्राचीन ग्रंथों में ऐसे कई उद्धरण हैं जो ऊंचाइयों तक पहुंचने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। हमें उनका अध्ययन करने और सवरेत्कृष्ट को ग्रहण करने की आवश्यकता है। तभी हमें अपना ‘विश्व गुरु’ का स्थान पुन: हासिल हो सकता है।
(लेखक भारत के उप-राष्ट्रपति हैं।)