काबुल: भारत के हाथ से फिसल रहा मौका, वेदप्रताप वैदिक का ब्लॉग

By वेद प्रताप वैदिक | Published: August 10, 2021 02:21 PM2021-08-10T14:21:23+5:302021-08-10T14:22:58+5:30

अफगानिस्तान में चल रही हिंसा और खून-खराबे की भर्त्सना करते हैं और डंडे के जोर पर सत्ता-परिवर्तन के खिलाफ हैं.

india afghanistan relations Kabul Opportunity slipping out India's hand Ved pratap Vaidik's blog | काबुल: भारत के हाथ से फिसल रहा मौका, वेदप्रताप वैदिक का ब्लॉग

सभी महाशक्तियों ने तालिबान के साथ गुपचुप संबंध बना रखे थे.

Highlightsकाबुल में तालिबान की सरकार 20 साल पहले भी चलती रही थी.लोकतांत्रिक सरकार की मान्यता की जरूरत नहीं थी.अमेरिका में तालिबान के अनौपचारिक राजदूत अब्दुल हकीम मुजाहिद 1999 में न सिर्फ न्यूयॉर्क में मुझसे गुपचुप मिला करते थे.

जैसी कि आशंका थी, अफगानिस्तान में तालिबान का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है लेकिन दुनिया के शक्तिशाली देश हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं. मैं पिछले कई हफ्तों से लिख रहा हूं कि सुरक्षा परिषद की अध्यक्षता संभालते ही भारत को अफगानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र की शांति-सेना भिजवाने का प्रयत्न करना चाहिए.

 

यह संतोष का विषय है कि भारतीय प्रतिनिधि ने पहले ही दिन अफगानिस्तान को सुरक्षा परिषद में चर्चा का विषय बना दिया लेकिन हुआ क्या? कुछ भी नहीं. इस अंतरराष्ट्रीय संगठन ने कोई ठोस कदम नहीं उठाया. जो भी प्रतिनिधि इस 15 सदस्यीय संगठन में बोले, उन्होंने हमेशा की तरह घिसे-पिटे बयान दे दिए और छुट्टी पाई.

सबके बयानों का सार यही था कि वे अफगानिस्तान में चल रही हिंसा और खून-खराबे की भर्त्सना करते हैं और डंडे के जोर पर सत्ता-परिवर्तन के खिलाफ हैं. कुछेक वक्ताओं ने यह भी कहा कि तालिबान की सरकार को वे मान्यता नहीं देंगे. यह उन्होंने ठीक कहा लेकिन काबुल में तालिबान की सरकार 20 साल पहले भी चलती रही थी और उसे किसी भी लोकतांत्रिक सरकार की मान्यता की जरूरत नहीं थी.

अमेरिका में तालिबान के अनौपचारिक राजदूत अब्दुल हकीम मुजाहिद 1999 में न सिर्फ न्यूयॉर्क में मुझसे गुपचुप मिला करते थे बल्किअमेरिकी विदेश मंत्नालय के अधिकारियों के साथ भी लंबी-लंबी बैठकें नियमित किया करते थे. सभी महाशक्तियों ने तालिबान के साथ गुपचुप संबंध बना रखे थे.

भारत के अलावा अफगान मामलों से संबंधित सभी राष्ट्रों ने आजकल तालिबान से खुलेआम संबंध बना रखे हैं. काबुल पर कब्जा करने के बाद उन्हें औपचारिक मान्यता मिलने में देर नहीं लगेगी. भारत ने सुरक्षा परिषद का यह अपूर्व अवसर अपने हाथ से फिसल जाने दिया है. यदि शांति-सेना का प्रस्ताव पारित हो जाता तो वह किसी के भी विरुद्ध नहीं होता.

अफगानिस्तान का खून-खराबा रुक जाता और साल भर बाद चुनाव हो जाता लेकिन अभी तो एक के बाद एक प्रांतों की राजधानियों पर तालिबान का कब्जा बढ़ता जा रहा है. हजारों लोग वीजा के साथ और उसके बिना भी अफगानिस्तान से पलायन कर रहे हैं. कतर की राजधानी में चल रही तालिबान और डॉ. अब्दुल्ला की बातचीत भी अधर में लटक गई है. अफगानिस्तान में शांति स्थापित करने का मौका भारत के हाथ से निकला जा रहा है.

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