मानसिक स्वाधीनता के लिए हिंदी की दरकार
By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: September 14, 2018 07:42 AM2018-09-14T07:42:55+5:302018-09-14T07:42:55+5:30
अनुवाद, प्रशिक्षण और शब्द निर्माण आदि के निमित्त एकांत भाव से समर्पित अनेक सरकारी संस्थान वर्षो से कार्यरत हैं। सरकारी कार्यालयों में हिंदी अधिकारी नियुक्त हैं।
- गिरीश्वर मिश्र
स्वतंत्न भारत के सत्तर साल पूरे हो चुके हैं पर राजभाषा हिंदी को लेकर आज भी एक संभ्रम की स्थिति बनी हुई है। वस्तुत: (अघोषित) राजभाषा अंग्रेजी ही बनी हुई है। राजकीय कार्य में हिंदी अभी भी अनुवाद की ही भाषा है और शिक्षा तथा ज्ञान जैसे आधारभूत क्षेत्नों में उसकी पहुंच सीमित है। न्याय और स्वास्थ्य के क्षेत्नों की दृष्टि से भी हिंदी की शक्ति दुर्बल है। कुल मिलाकर वह पूर्ण राजभाषा के काबिल नहीं समझी जा सकी है और भविष्य में कब समझी जाएगी इसका कोई पता नहीं है।
वैसे स्थापित व्यवस्था के तहत संसद की राजभाषा समिति निरंतर देश भर में दौड़-दौड़ कर विभिन्न संस्थानों में हिंदी की जमीनी हकीकत का जायजा लेती है और उसे राष्ट्रपति के संज्ञान में लाती है। राष्ट्रपति उस संबंध में आदेश भी पारित करते हैं। भारत सरकार के प्रत्येक मंत्नालय की अपनी-अपनी राजभाषा सलाहकार समितियां हैं। एक केंद्रीय हिंदी समिति भी है। हिंदी की उन्नति के लिए सरकारी बजट में व्यवस्था है। सरकारी तंत्न मुस्तैद है और एक स्तर पर हिंदी के प्रति अपने ढंग से संवेदनशील भी है । यह उसकी संवैधानिक बाध्यता भी है। हिंदी भाषी प्रदेशों की सरकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर हिंदी के संवर्धन के लिए व्यवस्थाएं खड़ी कर रखी हैं। हिंदी की अकादमियां और अनेक संस्थान भी बने हैं जो पुरस्कारों और आयोजनों द्वारा हिंदी को प्रोत्साहित करने का कार्य करते हैं। ये सारे प्रयास सरकारी तंत्न-जाल में औपचारिकताओं के निर्वाह तक सिमट जाते हैं। दूसरी ओर कभी नि:स्पृह हिंदी सेवा के संकल्प के साथ बनी नागरी प्रचारिणी सभा, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति और हिंदी साहित्य सम्मेलन जैसी हिंदी की गैर सरकारी संस्थाएं आपसी कलह, स्वार्थ और वैमनस्य के कारण अस्वस्थ हो रही हैं और प्राय: मरणासन्न सी दशा में पहुंच रही हैं। हिंदी के उत्सव के लिए हिंदी पखवाड़े का बैनर सरकारी दफ्तरों पर प्रतिवर्ष सुशोभित होता है।
परंपरावादी देश में सरकारी दफ्तर नियमपूर्वक प्रतियोगिता, भाषण और सम्मान, गायन-वादन और हिंदी-स्तुति का प्रीतिकर अनुष्ठान सम्पन्न करते हैं। यत्न-तत्न हिंदी को लेकर गंभीर चिंता भी व्यक्त की जाती है और इसके प्रति समर्पण का सत्संकल्प भी दुहराया जाता है। इन सबके दुश्चक्र में हिंदीजीवी लेखक, अधिकारी और भाषाविद् फंसे रहते हैं कुछ बेमन से और कुछ बड़े मनोयोग से। विभिन्न सरकारी और गैरसरकारी संस्थाएं भी इन कार्यक्रमों की व्यवस्था और आयोजन में आए दिन उलझी रहती हैं। नगर राजभाषा कार्य समिति (नराकास) की बैठक होती है और हिंदी के लिए खानापूरी का कागजी दौर चलता रहता है। हिंदी के प्रेमियों, साहित्यकारों और महारथियों को अस्त-व्यस्त रखने में इन सभी का बड़ा योगदान है। यह सब देख सुन कर हिंदी में अभिरुचि रखने वालों को कुछ-कुछ सुखकर भी लगता है। परंतु तथ्य यही है कि इन सब प्रलोभनों के तुमुल कोलाहल के बीच हिंदी को लेकर उठने वाले मुख्य प्रश्न प्राय: धरे के धरे ही रह जाते हैं। हिंदी के रथ का पहिया जहां धंसा था वहां से निकलने का नाम नहीं ले रहा है। सब कुछ के बावजूद हिंदी रथ आगे नहीं खिसकता दिख रहा है।
सरकार वचनबद्ध है कि हिंदी परिपक्व होते ही और सबके द्वारा स्वीकृत होते ही पूर्ण राजभाषा का दर्जा पा सकेगी। केंद्र की सरकार ने हिंदी के उद्धार के लिए गृह मंत्नालय के अधीन राजभाषा विभाग स्थापित कर रखा है। अनुवाद, प्रशिक्षण और शब्द निर्माण आदि के निमित्त एकांत भाव से समर्पित अनेक सरकारी संस्थान वर्षो से कार्यरत हैं। सरकारी कार्यालयों में हिंदी अधिकारी नियुक्त हैं। सरकारी तंत्न की तमाम सीमाओं के बावजूद इनके द्वारा महत्वपूर्ण कार्य भी हुआ है। भारत के अनेक विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में हिंदी विभाग हैं। हिंदी का एक बड़ा प्रकाशन व्यापार भी है। हिंदी फिल्मों की धूम मची है। हिंदी मीडिया भी जबर्दस्त है और हिंदी बहुल राजनेता भी हैं। आज हिंदी की भाषा प्रौद्योगिकी भी सुदृढ़ धरातल पर स्थापित है। फिर भी हिंदी हाशिए पर क्यों है? क्यों हिंदी शिक्षा, न्याय, स्वास्थ्य और सरकारी कामकाज में प्रभावकारी ढंग से नहीं आ पा रही है?
हम क्यों निरुपाय हुए जा रहे हैं? हमारे समक्ष यह यक्ष प्रश्न कि चूक कहां हो रही है, गंभीर विचार की अपेक्षा रखता है। हिंदी के प्रयोग से शिक्षा में सृजनात्मकता, दक्षता, नागरिक जीवन की सुविधा में वृद्धि, न्याय में पारदर्शिता, लोकतांत्रिक प्रक्रि या का सबलीकरण और जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि सभी जुड़े हैं। संस्कृति और सभ्यता भाषा में ही सांस लेते हैं। उनके संरक्षण और उत्थान के लिए भी हिंदी की अभिवृद्धि जरूरी है। हिंदी के पक्ष में राजनैतिक-सामाजिक आधार मजबूत करने के साथ हमें उन दुर्बल क्षेत्नों की ओर भी ध्यान देना होगा जहां हिंदी की सामथ्र्य की संभावना है। हमें उन भ्रमों को दूर करना होगा जो हिंदी की छवि धूमिल करते हैं।
(गिरीश्वर मिश्र एक मनोचिकित्सक, सामज विज्ञानी और लेखक हैं। वह गोरखपुर विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान की शिक्षा देते हैं।)