क्या उर्दू मुसलमानों की भाषा है?
By रंगनाथ सिंह | Published: January 9, 2021 08:56 AM2021-01-09T08:56:00+5:302021-01-09T15:38:50+5:30
हिन्दी और उर्दू विवाद आजादी से पहले शुरू हुआ। ये रूढ़ धारणा बन गयी कि हिन्दी हिन्दुओं और उर्दू मुसलमानों की जबान है। भारत विभाजन की छाया के छँटने के बाद पीछे मुड़कर इस बहस पर एक नजर डालना जरूरी है।
बहुत से हिन्दू प्रगतिशील मान कर चलते हैं उर्दू मुसलमानों की भाषा है। यह अलग बात है कि वो लिखने-बोलने में हमेशा यही आरोप लगाते हैं कि उर्दू को मुसलमानों की भाषा बना दिया गया है। दिल्ली के प्रगतिशील ऐसे न होते तो देश की इतनी प्रगति न हुई होती, इसलिए उनके बारे में कुछ कहना ही व्यर्थ है। लेकिन इसका मनोवैज्ञानिक असर ये हुआ कि यूपी के टिपिकल गाँव में अवधी या भोजपुरी बोलने वाले बाप-दादा के घर पैदा हुआ मुसलमान बच्चा भी यह मानने लगा कि उसकी जबान उर्दू है, हिन्दी नहीं।
अगर मैं आज पीछे पलट के देखूँ तो लगता है कि सही मायनों में हिन्दी को नस्तालिक लिपि में ही लिखा जाना चाहिए था क्योंकि इस भाषा को वर्तमान स्तर तक पहुँचाने में जिन लोगों का बड़ा हाथ है, जैसे अमीर खुसरो, वली दक्कनी, कुली कुतुब शाह और मीर इत्यादि, ये सब नस्तालिक लिपि में लिखते थे। लेकिन अंग्रेजों को यह मंजूर नहीं था। उस दौर में हिन्दू मुस्लिम विवाद ही उनके भारत में टिके रहने की जरूरत थी। कुछ ब्राह्मण कुछ कायस्थ कुछ राजपूत कुछ शेख कुछ सैयद कुछ पठान हमेशा ही हुक्मरानों के पैरोल पर रहते हैं, तो इनकी मदद से केवल लिपि भेद के आधार पर हिन्दी और उर्दू दो भाषाएँ बना दी गयीं।
उर्दू-हिन्दी: एक भाषा दो लिपि
अब इतिहास का चक्र पलटना सम्भव नहीं है तो हिन्दी देवनागरी में लिखी जाती रहेगी और उर्दू नस्तालिक में। पहले मेरी राय थी कि ऐतिहासिक भूल को दुरुस्त करते हुए देवनागरी में उर्दू लिखा जाना चाहिए लेकिन बाद में अहसास हुआ कि अगर ऐसा होने लगे तो गालिब और मीर को मूल में पढ़ने वालों का टोटा हो जाएगा। हिन्दी साहित्य के महान ऐतिहासिक लेखकों को बचाने का एक ही तरीका है कि उर्दू जबान को उसकी लिपि के साथ संरक्षित किया जाए।
अब हम मूल मुद्दे पर वापस आते हैं। क्या उर्दू मुसलमानों की भाषा है? सीधा और सरल जवाब है, नहीं। इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है, फलता-फूलता बांग्लादेश। भाषाई अस्मिता के आधार पर पाकिस्तान से अलग होकर बना देश। उर्दू को मुसलमानों की भाषा होने की शगूफे पर सरकारी मुहर उस दिन लगी जब पाकिस्तान ने उर्दू को अपनी राजकीय जबान घोषित कर दिया। जबकि आजादी के समय पाकिस्तान की कुल आबादी का करीब चार फीसद ही ऐसे लोगों का था जो उर्दू भाषी थे।
पाकिस्तान की बड़ी जबानें पंजाबी, बांग्ला, सिंधी, सरायकी, पश्तो थीं। खैर, पाकिस्तान ने पूरे मुल्क पर उर्दू लागू कर दी और कमोबेश उसे वहाँ की राजकीय भाषा का दर्जा दिला भी दिया। भारत में हिन्दी के साथ ठीक उलटा हुआ। आजादी के साथ ही लोगों ने भाषा की राजनीति शुरू कर दी। देश की पिछले सौ डेढ़ सौ साल से चली रही एक राष्ट्र एक भाषा की चाहत कुनबापरस्ती की तंगनजरी की भेंट चढ़ गयी।
हिन्दुस्तानी मुसलमान की जबान?
आजादी के समय उर्दू का जो हाल पाकिस्तान में था, वही हाल हिंदुस्तान में था। भारत की मुस्लिम आबादी का बड़ा हिस्सा बांग्ला, पंजाबी, मलयालम, तमिल, तेलुगु, कन्नड़ इत्यादि बोलने वाला था। उर्दू उसकी मादरी जबान किसी भी हाल में नहीं थी। यहाँ भी बांग्लादेश का उदाहरण ही सबसे मुफीद है। बांग्लादेश मुस्लिम बहुल देश है लेकिन उन्होंने बांग्ला को अपनी राष्ट्रभाषा के तौर पर चुना।
हिन्दी पट्टी की भी बात करें तो ज्यादातर भोजपुरी, अवधी, ब्रज, बुंदेली, मैथिली इत्यादि जबानें उन इलाकों के हिन्दू और मुसलमान दोनों की मातृभाषा मानी जा सकती हैं। तो यह साफ है कि उर्दू सभी मुसलमानों की नहीं कुछ मुसलमानों की जबान है। भारत में भाषा के आधार पर यह साम्प्रदायिक विभाजन मुख्यतः यूपी-बिहार में बचा है। केरल और बंगाल इत्यादि में हिन्दू और मुसलमान की जबान एक ही है।
ऐसे में यह सवाल भी लाजिमी है कि क्या उर्दू को कभी मुसलमानों इस ठप्पे से मुक्ति मिलेगी? अभी तो यह सम्भव नहीं लगता क्योंकि हमारे पड़ोस में एक मुल्क है पाकिस्तान जिसने इस विवाद को निर्णायक मोड़ देते हुए उर्दू के माथे पर ठप्पा लगा दिया - मुसलमान। लेकिन तथ्यात्मक सत्य यही है कि न उर्दू मुसलमानों की भाषा है, न हिन्दी हिन्दुओं की।