हरीश गुप्ता का ब्लॉग: सच साबित हो रही है आशंका! यूपी चुनाव योगी के लिए परीक्षा की घड़ी
By हरीश गुप्ता | Published: January 20, 2022 09:00 AM2022-01-20T09:00:43+5:302022-01-20T09:00:43+5:30
उत्तर प्रदेश का चुनाव अब भाजपा के लिए बहुत आसान नहीं लग रहा है. भाजपा आलाकमान ने पिछले साल यूपी में नेतृत्व परिवर्तन पर विचार करने की कोशिश की भी थी. हालांकि, प्रस्ताव बाद में रद्द कर दिया गया.
कभी यूपी में भाजपा के लिए जो आसान लगता था, अब वही उसका वाटरलू बनता जा रहा है. भाजपा ने फरवरी-मार्च 2022 के चुनावों से पहले कुछ राज्यों में मुख्यमंत्री बदलकर सत्ता विरोधी लहर से बचने की कोशिश की. उत्तराखंड में तो भाजपा ने एक साल के अंदर तीन मुख्यमंत्री बदले. नेतृत्व को विश्वास है कि पुष्कर धामी को लाने से भरपूर लाभ मिलेगा.
हालांकि गोवा और मणिपुर में एंटीइन्कम्बेंसी की रिपोर्टो के बावजूद नेतृत्व परिवर्तन पर कई कारणों से विचार नहीं किया गया. लेकिन उत्तरप्रदेश को लेकर नेतृत्व की आशंका अब सच साबित होती जा रही है. भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग अब अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसी साबित हो रही है.
ऐसा नहीं है कि भाजपा नेतृत्व को लखनऊ से निकलने वाले चिंताजनक संकेतों की जानकारी नहीं थी. भाजपा आलाकमान ने पिछले साल यूपी में नेतृत्व परिवर्तन पर विचार करने की कोशिश की थी. इसको लेकर योगी आदित्यनाथ को संकेत भी दे दिए गए थे. आखिरकार, 2017 के विधानसभा चुनाव योगी के नाम पर नहीं लड़े गए थे और यह पीएम मोदी ही थे जो पूरे अभियान के दौरान आगे थे.
भाजपा ने 41 प्रतिशत वोट पाकर सहयोगी दलों के साथ 325 सीटों पर जीत हासिल की थी. लेकिन 2020 के बाद से, आलाकमान को प्रतिकूल रिपोर्ट मिल रही थी और उसे लगा कि कुछ कड़े कदम उठाने की जरूरत है.
परेशानी को भांपते हुए योगी दिल्ली पहुंचे और प्रधानमंत्री के समक्ष विशेष प्रस्तुति दी. पता चला कि आरएसएस नेतृत्व बदलाव के खिलाफ था क्योंकि योगी एक हिंदू प्रतीक के रूप में उभरे हैं. इसलिए यह प्रस्ताव रद्द कर दिया गया और बाद में मौजूदा स्थिति पर नजदीकी नजर रखने के लिए आरएसएस के शीर्ष पंक्ति के नेता दत्तात्रेय होसबोले को लखनऊ में तैनात किया गया.
पार्टी आलाकमान की सलाह पर योगी ने कई सुधारात्मक कदम उठाए. लेकिन नेतृत्व उलझन में ही रहा और अब आशंका सच साबित हो गई है. जो चीज आसान थी वह अब कांटे की टक्कर वाली हो गई है. अनजाने में, ‘मंडल-कमंडल’ मुद्दा फिर से चुनाव के बीच आ गया है. 1990 में वीपी सिंह द्वारा मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने के बाद भाजपा ने एक लंबा सफर तय किया था और लालकृष्ण आडवाणी ने मंडल की राजनीतिक चुनौती से निपटने के लिए ‘कमंडल’ को अपनाया था.
2017 में यूपी पर निर्णायक रूप से अपना नियंत्रण स्थापित करने में भाजपा को 20 साल लग गए लेकिन इस हफ्ते के घटनाक्रम से अखिलेश यादव के साथ अन्य पिछड़ी जातियों के एकीकरण की फिर से शुरुआत हो सकती है. मोदी ने सुनिश्चित किया था कि 2014 के बाद से मंडल की राजनीति पृष्ठभूमि में चली जाए और एक अलग ही कथानक रचा गया. लेकिन मंडल का जिन्न वापस आ गया है और भाजपा को अपनी प्रचार रणनीति में बदलाव करना पड़ सकता है.
भाजपा नेतृत्व यह कहते हुए राज्य में सत्ता बरकरार रखने के प्रति आश्वस्त है कि यूपी पश्चिम बंगाल नहीं है जहां उसने ज्यादातर अन्य दलों से आयातित नेताओं और कार्यकर्ताओं के बल पर चुनाव लड़ा था. यूपी में हर गली-चौराहे पर भाजपा कार्यकर्ता सक्रिय हैं. हर हालत में, यूपी का यह चुनाव योगी का चुनाव है और भाजपा अगर कम अंतर से भी जीती तो उनकी किस्मत सील हो सकती है.
योगी कम अंतर से लौटे तो आलाकमान खुश होगा. अयोध्या से चुनाव लड़ने के उनके अनुरोध को आलाकमान ने पहले ही ठुकरा कर उनका कद दिखा दिया था. जाहिर है कि वे हिंदुओं के प्रतीक के रूप में उभरना चाहते थे. घड़ी परीक्षा की है!!!
प्रियंका गांधी के लिए परीक्षा का समय
यूपी चुनाव की लड़ाई प्रियंका गांधी वाड्रा के लिए परीक्षा की घड़ी है क्योंकि राज्य में कांग्रेस को पुनर्जीवित करने के लिए उनका सबकुछ दांव पर है. लंबे समय बाद, कांग्रेस अकेले चुनाव लड़ने जा रही है. यह राज्य में उनकी तीन साल की मेहनत की परीक्षा है और उन्होंने लखनऊ को अपना गढ़ बनाया है. कांग्रेस को वोटों और सीटों के मामले में दोहरे अंकों तक पहुंचने और भाजपा को नुकसान पहुंचाने के लिए ऊंची जाति के वोटों में सेंध लगानी होगी.
केजरीवाल, ममता की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा
2022 के विधानसभा चुनाव राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाएं रखने वाले कम से कम दो मुख्यमंत्रियों के लिए 2024 के लोकसभा चुनावों की पूर्व तैयारी हैं. पश्चिम बंगाल में भाजपा को हराकर अगर ममता बनर्जी राष्ट्रीय मंच पर उभरने को बेताब हैं तो अरविंद केजरीवाल पंजाब, गोवा, उत्तराखंड और यूपी में किस्मत आजमा रहे हैं.
उनके ‘शासन के दिल्ली मॉडल’ ने मतदाताओं को विचार करने पर मजबूर कर दिया है जबकि ममता ने अभी तक अपना मॉडल सामने नहीं रखा है. ममता गोवा में कांग्रेस की जगह लेने के लिए बेताब हैं और केजरीवाल भी वहां अपनी किस्मत आजमा रहे हैं, जहां उन्हें 2017 में 3 प्रतिशत वोट मिले थे.
पंजाब में उनकी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं की फिर से परीक्षा होगी, जहां आप कांग्रेस को एक गंभीर चुनौती दे रही है. दिलचस्प बात यह है कि भाजपा के राष्ट्रीय विकल्प के रूप में उभरने के लिए दोनों कांग्रेस से लड़ रहे हैं.