ब्लॉग: आधी आबादी को आधे अधिकार भी तो चाहिए

By राजेश बादल | Published: July 26, 2023 08:44 AM2023-07-26T08:44:49+5:302023-07-26T08:46:25+5:30

यदि संसद और प्रदेशों की विधानसभाओं में आधे स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित कर दिए गए तो एक तरह से सियासी शुचिता की गारंटी भारतीय समाज को मिल सकती है.

Half the population women needs half the rights also | ब्लॉग: आधी आबादी को आधे अधिकार भी तो चाहिए

ब्लॉग: आधी आबादी को आधे अधिकार भी तो चाहिए

यह तो कमाल हो गया. भारत के निजी क्षेत्र में महिलाओं को पचास फीसदी स्थान मिल गया. एक प्रतिष्ठित कंपनी ने देश के तीन सौ से अधिक निजी क्षेत्र के उपक्रमों का आंतरिक सर्वेक्षण किया. इस सर्वेक्षण में पाया गया कि आधे से अधिक स्थान महिलाओं के कब्जे में हैं. पिछले तीन-चार वर्षों के दौरान इस आंकड़े में जबरदस्त उछाल आया है. यह महिलाएं इन बड़ी कंपनियों में निर्णायक भूमिका निभा रही हैं. 
हालांकि यह भी सच है कि महिलाओं को इन कंपनियों में उनकी पेशेवर प्रतिभा के आधार पर प्रवेश मिला है. उन्हें किसी किस्म के आरक्षण ने मदद नहीं की है. दूसरी तरफ गांवों, कस्बों और छोटे शहरों की महिलाओं तथा युवतियों के लिए संभावनाओं के द्वार अभी उस तरह नहीं खुले हैं मगर देर-सबेर यह भी हो जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए. 

असल सवाल तो यह है कि सरकारी सार्वजनिक उपक्रमों में और सियासत में आधी आबादी को आधे स्थान देने से सरकारें क्यों हिचकती हैं. भारतीय संविधान जब महिलाओं को पुरुषों के बराबर स्थान देता है तो उसका अर्थ क्या है. दर्जा समान है, लेकिन विधानसभाओं और संसद में आधे स्थान देने के लिए भी हमारी सियासी पार्टियां क्यों तैयार नहीं हो रही हैं, जबकि कुल मतदाताओं की संख्या का लगभग पचास फीसदी महिलाएं हैं तो लोकसभा या किसी विधानसभा की सीटें आधी-आधी क्यों नहीं बांटी जातीं? पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता का यह उदाहरण कोई मिसाल पेश नहीं करता.

कई दशक से भारतीय लोकतंत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने की मांग उठती रही है. राजनीतिक दल कमोबेश प्रत्येक चुनाव में वादा करते हैं कि वे विधानसभा और लोकसभा के चुनावों में महिलाओं को अधिक संख्या में प्रत्याशी बनाएंगे, लेकिन जब उनके उम्मीदवारों की सूचियां जारी होती हैं तो हम पाते हैं कि उनमें दस-पंद्रह फीसदी से अधिक स्त्रियां नहीं होतीं. तैंतीस प्रतिशत और पचास प्रतिशत आरक्षण की बात सिर्फ कागजों पर दिखाई देती है. कोई भी सियासी पार्टी उन्हें टिकट देने का साहस नहीं दिखाती. 

हालांकि कुछ प्रदेशों में ग्राम पंचायतों से लेकर नगर पालिकाओं और नगर निगमों तक में पचास प्रतिशत तक आरक्षण महिलाओं को दिया जा चुका है, पर उससे ऊपर जाने यानी विधानसभाओं तथा लोकसभा में महिलाओं का प्रतिशत बढ़ाने की हिम्मत कोई दल नहीं जुटा पा रहा है. शायद इसी कारण लोकसभा में महिलाओं की भागीदारी चौदह फीसदी से अधिक नहीं हो सकी. इससे बेहतर स्थिति तो भारत के पड़ोसी देशों की है. हम उन छोटे देशों से भी कोई सबक नहीं लेना चाहते.  

राजनीतिक नेतृत्व में असंतुलन बढ़ने का एक बड़ा कारण यह भी है. नीचे के स्तर से तो महिलाएं सरपंच से लेकर नगरपालिका अध्यक्ष और मेयर तक बन जाती हैं, पंच से लेकर पार्षद तक की भूमिका में वे परिपक्वता दिखाती हैं. इसके आगे जैसे उनके लिए पूर्ण विराम लग जाता है. नतीजा यह कि स्थानीय स्तर पर हम महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले अधिक कुशल और काबिल पाते हैं. 

इसके बावजूद उन्हें आगे के निर्वाचनों में अपने अस्तित्व के लिए एड़ीचोटी का जोर लगाना पड़ता है. अर्थ यह भी है कि स्थानीय निकाय स्तर तक पचास फीसदी महिलाओं को राजनीतिक प्रशिक्षण मिल चुका होता है. मगर इस अनुपात में उन्हें ऊपर जाने के लिए कम अवसर मिलते हैं.

विडंबना यह है कि इस मामले में पक्ष और प्रतिपक्ष एक नजर आते हैं. वे संसदीय और विधायी चर्चाओं में भी इस विषय को उठाना नहीं चाहते. राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहते हुए ठोस कोशिश हुई थी, लेकिन बाद में उन्हें अधिक समर्थन नहीं मिला. राजीव गांधी चाहते थे कि पंचायत से लेकर संसद तक महिलाओं के लिए पचास प्रतिशत स्थान सुरक्षित हों. लेकिन पंचायत से लेकर नगर निगम तक ही ऐसा हो पाया. उसके ऊपर नहीं. 

उनके कार्यकाल में 1988 में तो इसे औपचारिक शक्ल देने का प्रयास हुआ था. कुछ साल बाद महिला आरक्षण विधेयक तो बन गया. इसके बाद 1996 में यह विधेयक संसद में प्रस्तुत किया गया. इसी बीच प्रधानमंत्री देवेगौड़ा की सरकार चली गई और विधेयक लंबित रहा. चुनाव के बाद  कम से कम आधा दर्जन बार संसद पटल पर इस विधेयक को लाने के प्रयास हुए, पर वे बहुमत के अभाव में दम तोड़ गए. 

13 साल पहले 9 मार्च, 2010 को तो राज्यसभा ने भी इस विधेयक को अपनी मंजूरी दे दी थी, पर लोकसभा में यह फिर अटक गया. बता दूं कि यह विधेयक महिलाओं को केवल 33 प्रतिशत आरक्षण की बात करता है.

दरअसल 50 फीसदी भागीदारी महिलाओं को देने में मर्दों की परेशानी यह है कि राजनीति को धंधा बनाने की उनकी मंशा पर एक नैतिक अंकुश लग सकता है. यह माना जाता है कि पुरुषों की तुलना में महिलाएं भ्रष्टाचार को कम बढ़ावा देती हैं और सामाजिक सरोकारों को लेकर वे अधिक संवेदनशील होती हैं. यही नहीं, राष्ट्रहित में वे अनेक विषयों पर दलगत राजनीति से ऊपर उठकर भी सोच सकती हैं. ऐसा अधिकृत बयान हम पुरुष राजनेताओं के बारे में नहीं दे सकते. 

यदि संसद और प्रदेशों की विधानसभाओं में आधे स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित कर दिए गए तो एक तरह से सियासी शुचिता की गारंटी भारतीय समाज को मिल सकती है. राष्ट्रीय महिला आयोग ने तो पिछले साल इन्ही तर्कों के आधार पर लोकसभा और विधानसभाओं में पचास फीसदी स्थान आरक्षित करने की मांग की थी. अभी तक तो आयोग की बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया है.

Web Title: Half the population women needs half the rights also

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