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भयमुक्त मानवता के महाशिल्पकार थे गुरु गोविंद सिंह

By योगेश कुमार गोयल | Updated: December 27, 2025 07:46 IST

उन्होंने सिखों को यह सिखाया कि अत्याचार के सामने झुकना पाप है और अन्याय के विरुद्ध खड़ा होना धर्म.

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गुरु गोविंद सिंह जयंती भारतीय आध्यात्मिक और सांस्कृतिक इतिहास का वह पावन दिवस है, जब मानवता, साहस और बलिदान की सर्वोच्च मिसाल बने गुरु गोविंद सिंह का प्रकाशोत्सव मनाया जाता है.  तिथि के हिसाब से इस वर्ष गुरु गोविंद सिंह जी की जयंती 27 दिसंबर को मनाई जा रही है. गुरु गोविंद सिंह केवल सिख धर्म के दसवें गुरु ही नहीं थे बल्कि वे उस युग की अंतरात्मा थे, जिसने अन्याय के सामने झुकने से इंकार करना सिखाया.

उनका जीवन किसी एक धर्म या समुदाय की कथा नहीं बल्कि मानवीय गरिमा, स्वतंत्रता और आत्मसम्मान के लिए सतत संघर्ष की महागाथा है. हिंदू पंचांग के अनुसार पौष मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि, विक्रम संवत 1723 में उनका जन्म पटना साहिब में हुआ था. बचपन में उनका नाम गोविंद राय था. उनके पिता गुरु तेग बहादुर सिखों के नौवें गुरु थे, जिनका जीवन स्वयं साहस और बलिदान की मिसाल है.

जब कश्मीरी पंडितों के धार्मिक अधिकारों की रक्षा के लिए गुरु तेग बहादुर ने 1675 में दिल्ली के चांदनी चौक में शीश देकर शहादत दी, तब मात्र नौ वर्ष की आयु में गोविंद राय के कंधों पर गुरुगद्दी की जिम्मेदारी आई. यह केवल सत्ता हस्तांतरण नहीं था बल्कि इतिहास ने एक बालक के हाथों में एक पूरे युग की मशाल सौंप दी थी.

गुरु गोविंद सिंह का व्यक्तित्व बहुआयामी था. वे जितने महान आध्यात्मिक गुरु थे, उतने ही निर्भीक योद्धा, दार्शनिक, कवि और समाज सुधारक भी थे.  उन्होंने पंजाबी, हिंदी, ब्रज, संस्कृत और फारसी जैसी भाषाओं में न केवल दक्षता हासिल की बल्कि इन भाषाओं के माध्यम से विचारों की ऐसी धारा प्रवाहित की, जिसने शताब्दियों तक लोगों को प्रेरित किया.

घुड़सवारी, तीरंदाजी, नेजाबाजी और युद्धकला में वे निपुण थे लेकिन उनका सबसे बड़ा शस्त्र था, निडरता. गुरु गोविंद सिंह ने भयमुक्त समाज की कल्पना की. उनका कथन ‘भै काहू को देत नहि, नहि भय मानत आन’ केवल एक पंक्ति नहीं बल्कि जीवन-दर्शन है. वे ऐसे समाज के निर्माता थे, जहां न कोई डराने वाला हो और न डरने वाला.  

गुरु गोविंद सिंह का जीवन संघर्षों से भरा रहा. आनंदपुर साहिब, चमकौर और अन्य युद्धस्थल उनकी वीरता के साक्षी हैं. लेकिन उनकी सबसे बड़ी परीक्षा तब आई, जब उन्हें अपने परिवार का बलिदान देना पड़ा.  उनके चारों पुत्र (अजीत सिंह, जुझार सिंह, जोरावर सिंह और फतेह सिंह) धर्म और सत्य की रक्षा करते हुए शहीद हुए.

चमकौर के युद्ध में बड़े पुत्रों ने रणभूमि में वीरगति पाई, जबकि छोटे साहिबजादों को सरहिंद में इस्लाम स्वीकार न करने पर दीवार में जिंदा चुनवा दिया गया. माता गुजरी की शहादत भी उसी करुण अध्याय का हिस्सा है.  

इन असहनीय दुखों के बावजूद गुरु गोविंद सिंह विचलित नहीं हुए. उनका जीवन बताता है कि व्यक्तिगत शोक भी कर्तव्य से बड़ा नहीं होता. उन्होंने सिखों को यह सिखाया कि अत्याचार के सामने झुकना पाप है और अन्याय के विरुद्ध खड़ा होना धर्म.

यही कारण है कि उन्होंने अंततः गुरु ग्रंथ साहिब को सिखों का शाश्वत गुरु घोषित किया. 1708 में महाराष्ट्र के नांदेड़ में उन्होंने संगत को आदेश दिया कि अब गुरु परंपरा देह में नहीं, वाणी में होगी. यह निर्णय सिख इतिहास का सबसे दूरदर्शी कदम था. नांदेड़ में ही, गोदावरी के तट पर बसे हजूर साहिब में 18 अक्तूबर 1708 को उन्होंने देह त्याग किया.

टॅग्स :गुरु गोबिंद सिंहसिखSikh Empire
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