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गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: परीक्षा प्रणाली में सुधार करने की जरूरत

By गिरीश्वर मिश्र | Updated: June 4, 2021 08:25 IST

कोरोना ने मौजूदा शिक्षा व्यवस्था को भी प्रभावित किया है. साथ ही कई सवाल भी एक बार फिर खड़े हो गए हैं. मौजूदा प्रणाली में तो परीक्षा का ही सबसे ज्यादा महत्व हो गया है. अब इसका विकल्प खोजने का समय आ गया है.

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प्रचंड कोरोना काल में आकस्मिक रूप से उठी जीवन-रोधी आंधी ने आज आदमी को उसके अस्तित्व के उन मूल प्रश्नों से रूबरू कर दिया है जिनकी व्याख्या में उलझने से लोग अक्सर बचते-बचाते रहे हैं और जैसे-तैसे काम चलाते रहे हैं. इस दौरान प्रकृति और खुद अपने बारे में हमने कई गलतफहमियां भी पाल रखी थीं. अपने स्वभाव और रिश्ते को लेकर हम सब विकास की एक एकांगी मानसिकता के साथ दौड़ लगाते चल रहे थे. कोरोना ने इन सब पर भयानक लगा दिया है.  

कोविड आने के पहले की अवस्था में शिक्षा संस्थाएं चल रही थीं, पढ़ाई-लिखाई के नाम पर  प्रवेश और परीक्षा का कार्यक्रम विधिवत संपादित हो रहा था. एक खास तरह के काम में सभी लोग व्यस्त थे. विद्यार्थी, अध्यापक और पालक सभी प्रचलित व्यवस्था का आदर करते हुए उस पर अपना भरोसा बनाए हुए थे. औपचारिक व्यवस्था की कमियों की पूर्ति के लिए ट्यूशन और कोचिंग पर अतिरिक्त भी खर्च करने को तैयार थे.

यह सब इस तथ्य के बावजूद हो रहा था कि सबको पता था पाठ्यक्रम, पाठ्य चर्या, मूल्यांकन और अध्यापक प्रशिक्षण आदि की कमजोरियां शिक्षा के आयोजन को अंदर से लगातार खोखला कर रही थीं. इस प्रणाली में परीक्षा का ही सबसे ज्यादा माहात्म्य है. साल भर क्या पढ़ा-लिखा गया इससे किसी को उतना मतलब नहीं होता जितना इससे कि सालाना इम्तहान में क्या अंक या श्रेणी मिलती है. इसलिए सही गलत किसी भी तरह परीक्षा में दांव लगाना ही सबका लक्ष्य होता गया.

साल भर से अधिक समय से विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय सभी भौतिक दृष्टि से प्रत्यक्ष शिक्षा देने की जगह दूर शिक्षा का आश्रय लेने को मजबूर हो चुके हैं. जहां सुविधा और संसाधन हैं वहां इंटरनेट के द्वारा विद्यार्थियों को पढ़ाने की कवायद और परीक्षा का कृत्य भी पूरा किया जा रहा है. चूंकि यह सब अचानक बड़े पैमाने पर हुआ, इसके लिए कोई तैयार न था.

विद्यार्थी और अध्यापक किसी को भी इसका अभ्यास न था. धीरे-धीरे जूम जैसे प्लेटफार्मो की सहायता से अध्यापन ने जोर पकड़ा है, पर शिक्षा का व्यापक आशय - मन, शरीर और आत्मा को स्वस्थ व स्वायत्त बनाना अब और दूर चला गया है. समता और समानता के लक्ष्य भी बिसराए जाने लगे क्योंकि बच्चे महंगे मोबाइल और लैपटॉप से लैस होना चाहते हैं जो गरीब और निम्न मध्य वर्ग  को सहजता से सुलभ नहीं है.

इनकी आदत या व्यसन से पैदा होने वाले खतरे ऊपर से हैं. तथापि आज की हालत में हमारे पास इस अंधकार से उबरने का कोई और विकल्प भी नहीं है. कोरोना के संक्रमण के भय से स्कूल-कॉलेज को खोलना भी खतरे से खाली नहीं है. अनुमान के अनुसार कोविड की तीसरी लहर का भी अंदेशा बना हुआ है जिसका असर बच्चों और किशोरों पर अधिक होने के संकेत दिए जा रहे हैं. लाखों अध्यापकों और करोड़ों विद्यार्थियों को लेकर चलने वाली देश की विराट शिक्षा व्यवस्था को  स्वास्थ्य, सुरक्षा और प्रामाणिकता के साथ संचालित करना सचमुच विराट चुनौती है.

परीक्षा का विकल्प खोजने की जरूरत

इसलिए केंद्रीय सरकार ने बोर्ड की परीक्षाओं को निरस्त करने का फैसला किया है. हालांकि प्रदेशों के परीक्षा बोर्ड अपने लिए फैसले लेने को स्वतंत्र हैं. सामान्य वार्षिक परीक्षा, जिसमें एक स्थान पर एक निश्चित समय में निश्चित प्रश्नों का उत्तर देना होता है, अभी तक मानक स्थिति मानी जाती रही है. विद्यार्थियों, अभिभावकों और अध्यापकों की सुरक्षा, सेहत और तनाव के मद्देनजर इस व्यवस्था को  नकारना चुनौती और अवसर दोनों है.  विवश होकर ही सही, अब इस अर्थहीन परीक्षा का उचित विकल्प ढूंढ़ना ही होगा.

सीखने के अवसर और उद्देश्य को ध्यान में रख कर मूल्यांकन की सतत प्रक्रिया सीखने की प्रक्रिया में ही शामिल होती है यानी मूल्यांकन सीखने में होता है; मूल्यांकन उसका हिस्सा होता है न कि सीखने से बाहर की चीज. सीखने का  मूल्यांकन जैसा कि अभी तक  ज्यादातर  होता आया  है, हौआ  बन गया. दोनों के बीच अंतरंग और जैविक रिश्ता होना चाहिए. मूल्यांकन सीखने से बाहर की चीज नहीं होनी चाहिए.

वैसे भी मूल्यांकन से यह पता चलना चाहिए कि विद्यार्थी को क्या आता है. प्राप्तांक, ग्रेड और श्रेणी सिर्फ अप्रत्यक्ष रूप से ही यह बताते हैं कि तुलनात्मक दृष्टि से विद्यार्थी कहां खड़ा है, न कि  कौशल  की जानकारी देते हैं. परीक्षा में मिले अंकों से जीवन की वास्तविकताओं से टकराने और उनके समाधान के कौशल की कोई जानकारी नहीं मिलती है. वैसे भी साल भर या दो साल के शैक्षिक जीवन की यात्रा को दरकिनार रख तीन घंटे की परीक्षा में पांच प्रश्नों के उत्तर से कैरियर का बनना-बिगड़ना श्रम की जगह भाग्य को ही महत्व देता है.

अब शिक्षाविदों को शैक्षिक योग्यता को दर्शाने वाले दूसरे मापकों की तलाश करनी होगी जो न केवल अधिक साख वाले हों  बल्कि विद्यार्थियों की सृजनामक क्षमता, निर्णय की क्षमता और ज्ञान के उपयोग को दर्शाते हों. बौद्धिक योग्यता की प्रामाणिकता अपने परिवेश, समाज और प्रकृति के साथ रहने और अनुकूलन की व्यावहारिक उपलिब्ध में ही प्रकट होती है. जो क्रियावान होता है, वही विद्वान होता है.  

इस दृष्टि से अब आभासी शिक्षण की दुनिया में रिमोट परीक्षा के एक सार्थक मॉडल को विकसित करना होगा जिसमें स्मरण, समझ, विश्लेषण, सृजन और निर्णय आदि को सीखने के व्यापक परिवेश में स्थापित करना जरूरी होगा. इस दिशा में देश-विदेश की विभिन्न शिक्षा संस्थाओं में प्रयोग चल रहे हैं.

छात्र-छात्रओं को अपनी क्षमता व्यक्त करने का समुचित अवसर देना  परीक्षा के भूत से मुक्ति दिलाने में  सहायक होगा, जो  तनाव का एक बड़ा कारण बना रहता है. परीक्षा का सार्थक विकल्प शिक्षा को उसकी अनेक बाधाओं से मुक्त करेगा.

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