गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: एक साथ सारे चुनाव कराने की व्यवस्था जरूरी
By गिरीश्वर मिश्र | Published: February 11, 2020 07:31 AM2020-02-11T07:31:18+5:302020-02-11T07:31:18+5:30
चुनाव कराने के लिए आवश्यक व्यवस्था करने पर खर्च भी खूब बैठता है जो अंततोगत्वा जनता पर ही भारी पड़ता है. सरकारी अमले के लिए भी उनके अपने मूल दायित्व के साथ यह अतिरिक्त काम का बोझ होता है जिसके कारण चुनाव के दौरान अन्य दायित्वों की उपेक्षा होना स्वाभाविक बात होती है. चूंकि केंद्रीय सरकार भी राजनीतिक पार्टी से जुड़ी होती है इसलिए उसकी और भी शामत होती है जिससे शासन के काम बाधित होते रहते हैं.
चुनाव संसदीय प्रजातंत्न की हमारी बहुदलीय राजनीतिक व्यवस्था की एक बड़ी खूबी है जिसके सहारे आम जनता देश के शासन में अपनी भागीदारी महसूस करती है. सामान्य परिस्थितियों में प्रदेश और देश के स्तर पर ये चुनाव पांच साल के अंतराल पर आयोजित होते हैं. आरंभ में दोनों साथ होते थे पर अब इन चुनावों का कैलेंडर अक्सर अलग ही हुआ करता है.
कुछ माह पहले महाराष्ट्र में चुनाव हुआ, फिर झारखंड में, अब दिल्ली में हुआ है. इन चुनावों के दौरान हो रही उठा-पटक के साथ पूरे देश का माहौल गर्माता रहा है. कुछ दिन विराम के बाद बिहार, फिर आगे चल कर प. बंगाल में चुनाव का नंबर लगेगा. यानी चुनाव का खेल महोत्सव चलता ही रहेगा. दिल्ली के चुनाव में जिस तरह से कम वोट पड़े हैं उसके जो भी अर्थ लगें, वे इस माहौल से थकान की तरफ भी संकेत करते हैं. चुनाव देश के लिए होते हैं पर हर चुनाव में उठने वाले सवालों से यही लगता है कि प्रजातांत्रिक परिपक्वता पाने की दौड़ अभी लंबी है.
स्मरणीय है कि हर चुनाव कोई एक क्षणिक घटना न होकर महीनों तक खिंचने वाली प्रक्रि या हो जाती है जिसमें न केवल राजनीतिक दल अपनी जोर आजमाइश करते हैं बल्कि चुनाव आयोग को लंबी-चौड़ी प्रशासनिक व्यवस्था को भी चाक-चौबंद रखना पड़ता है.
चुनाव कराने के लिए आवश्यक व्यवस्था करने पर खर्च भी खूब बैठता है जो अंततोगत्वा जनता पर ही भारी पड़ता है. सरकारी अमले के लिए भी उनके अपने मूल दायित्व के साथ यह अतिरिक्त काम का बोझ होता है जिसके कारण चुनाव के दौरान अन्य दायित्वों की उपेक्षा होना स्वाभाविक बात होती है. चूंकि केंद्रीय सरकार भी राजनीतिक पार्टी से जुड़ी होती है इसलिए उसकी और भी शामत होती है जिससे शासन के काम बाधित होते रहते हैं.
प्रधानमंत्नी समेत सारा मंत्रिमंडल सरकार चलाने के साथ साल भर चुनाव मैनेज करने की जिम्मेदारी ढोने को मजबूर रहता है. शासन के तमाम काम छोड़ चुनाव लड़ना और लड़ाना ही यदि प्रमुख कार्य हो जाए तो शासन चलाना मुश्किल हो जाता है. प्रतिपक्षी दलों के लिए भी सतत चुनावी दंगल लाभकर नहीं कहा जा सकता. सभी राजनीतिक दलों से स्वाभाविक अपेक्षा होती है कि वे जनसेवा का कार्य करें और उसके आधार पर अपने लिए समर्थन जुटाएं.
वस्तुत: निरंतर चल रहे चुनाव का खामियाजा देश में हर किसी को भुगतना पड़ता है. सरकारी काम का नुकसान तो होता ही है, सरकारी खर्च बढ़ता है, महंगाई बढ़ती है और साथ में प्रशासनिक मुश्किलें भी बढ़ती हैं. परंतु इन सबसे कहीं ज्यादा गंभीर यह है कि सतत चुनाव के चलते राजनीतिक राग-द्वेष की जटिलताएं अनिवार्य रूप से गहराती जाती हैं. विभिन्न राजनीतिक दल एक दूसरे पर सच्चे-झूठे दोषारोपण करने के मौके तलाशते रहते हैं.
अत: राजनीतिक दलों को इस विकल्प पर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि देश में लोकसभा और प्रदेशों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाएं. इससे राजनीति में जनभागीदारी बढ़ेगी, चुनावी खर्च कम होगा और प्रशासनिक तंत्न के लिए भी सुविधा होगी.