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फिरदौस मिर्जा का ब्लॉगः कानून बनाने की कला का अभाव

By फिरदौस मिर्जा | Updated: September 8, 2021 15:05 IST

कानून बनाने वालों की जिम्मेदारी बहुत अहम होती है, उनका एक वोट लाखों परिवारों की किस्मत बदल देता है। चूंकि संसद कानूनों पर चर्चा करने के लिए पर्याप्त समय देने में सक्षम नहीं है इसलिए कार्यपालिका में संसद के समक्ष लाए बिना महत्वपूर्ण नीतियां बनाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है।

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ठळक मुद्दे प्राचीन काल से ही समाज को सभ्य बनाए रखने के लिए कानून बनाए जाते रहे हैंकानून की खराब गुणवत्ता के लिए सांसदों या विधायिकाओं को पूरी तरह से जिम्मेदार ठहराना उचित नहींसंविधान के अनुसार इन सदनों का प्राथमिक कार्य कानून बनाना है, बाकी काम गौण हैं

हम मनुष्य सामाजिक प्राणी हैं। प्राचीन काल से ही समाज को सभ्य बनाए रखने के लिए कानून बनाए जाते रहे हैं। पहले समाज सरल था, जरूरतें सीमित थीं इसलिए सामुदायिक जीवन के सामान्य नियम विकसित हुए। उसके बाद जटिलताएं बढ़ने के साथ, धर्मो की खोज हुई और धार्मिक कानूनों का उदय हुआ, जिनका पालन दैवीय शक्ति के डर से किया गया। आधुनिक समय में, शासन संवैधानिक लोकतंत्र के माध्यम से होता है और प्रतिनिधि निकाय यानी विधायिका के माध्यम से नागरिक कानून बनाने के लिए जिम्मेदार होते हैं। यह अपेक्षा की जाती है कि आधुनिक समय में कानूनों के निर्माण में मानव अधिकारों की सुरक्षा और समानता व कल्याण को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा।

75वें स्वतंत्रता दिवस समारोह के अवसर पर, भारत के प्रधान न्यायाधीश एन.वी.रमणा ने देश में कानून निर्माण और संसदीय बहस की दयनीय स्थिति पर अफसोस जताया। उनके अनुसार कानूनों में बहुत अस्पष्टता है, वे लोगों के लिए बहुत सारी मुकदमेबाजी और असुविधा पैदा करने का कारण बन रहे हैं। उनका मानना है कि कानून बनाने के मानकों में पिछले कुछ वर्षो में गिरावट आई है और जिस बिजली की गति से कानून पारित किए जा रहे हैं, वह गहरी चिंता का विषय है।

संविधान हमारा मूल विधान है और सभी कानूनों को इसके द्वारा निर्धारित सीमाओं के भीतर बनाया जाता है। संविधान बनाने में 2 साल 11 महीने से अधिक का समय लगा था। संसद और राज्य विधानमंडलों का निर्माण विधायिका के तहत किया जाता है जिसका अर्थ है कि ये वे मंच हैं जो कानून बनाते हैं। यह दिखाता है कि संविधान के अनुसार इन सदनों का प्राथमिक कार्य कानून बनाना है, बाकी काम गौण हैं।

पहले संशोधन विधेयक संयुक्तसमितियों को भेजे जाने का चलन था, जिन पर न केवल संसद में बल्कि सार्वजनिक रूप से भी लंबी बहस होती थी। मुङो नहीं याद आ रहा है कि हाल के संवैधानिक संशोधनों पर सार्वजनिक मंचों पर कोई बहस हुई है, विधेयकों पर आपत्तियां मंगाई गई हैं, रिपोर्टो को संबंधित संसदीय समितियों के सामने प्रस्तुत किया गया है या संसद में बहस हुई है। इसके परिणामस्वरूप सहकारी, राष्ट्रीय न्यायिक जवाबदेही जैसे संशोधन हुए, जो संवैधानिकता की कसौटी पर खरे नहीं उतरे और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निष्प्रभावी कर दिए गए। ओबीसी से संबंधित संशोधन को थोड़े समय के भीतर ही फिर से संशोधित किया गया।

यहां तक कि हमने देखा है, जल्दबाजी में बनाए गए कानूनों से भारतीय नागरिकों का एक बड़ा वर्ग परेशान और आंदोलित हुआ। कहा गया था कि किसानों से जुड़े कानून उनकी बेहतरी के लिए बनाए गए हैं लेकिन देश में उन कानूनों के खिलाफ एक साल से किसानों का अभूतपूर्व आंदोलन देखने को मिल रहा है। नागरिकता संशोधन अधिनियम हमारे संवैधानिक लोकतंत्र पर एक और धब्बा है जिसने देश की प्रतिष्ठा को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नुकसान पहुंचाया है और सरकार को पूरे देश में विरोध का सामना करना पड़ा है।

7वीं अनुसूची में 3 सूचियां हैं जो उन विषयों को निर्दिष्ट और अलग करती हैं जिन पर संसद और राज्य विधानमंडल कानून बना सकते हैं, दोनों ही समवर्ती सूची में उल्लिखित विषयों पर कानून बना सकते हैं। अंतरराज्यीय परिषद बनाए जाने का प्रावधान है ताकि कोई भी कानून या नीति बनाने से पहले केंद्र और राज्यों के बीच संवाद हो सके। संसद में चर्चा से पहले, संसदीय समितियों द्वारा विधेयकों की छानबीन की अपेक्षा की जाती है और लोगों की प्रतिक्रिया जानने के लिए उन पर आम चर्चा होना भी अपेक्षित है।

फरवरी, 2000 में न्यायमूर्ति वेंकटचलैया की अध्यक्षता में, ‘संविधान के कामकाज की समीक्षा के लिए राष्ट्रीय आयोग’ का गठन किया गया था। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कानून की गुणवत्ता के बारे में अपनी नाराजगी व्यक्त की थी और कुछ सिफारिशें की थीं, जिसमें यह सुनिश्चित करने के लिए संवैधानिक समिति का गठन शामिल है कि जो कानून बनाए जाने हैं, वे संविधान के विरुद्ध तो नहीं हैं और संशोधनों को आम कानूनों की तरह संसद में पेश नहीं किया जाए।

कानून बनाने वालों की जिम्मेदारी बहुत अहम होती है, उनका एक वोट लाखों परिवारों की किस्मत बदल देता है। चूंकि संसद कानूनों पर चर्चा करने के लिए पर्याप्त समय देने में सक्षम नहीं है इसलिए कार्यपालिका में संसद के समक्ष लाए बिना महत्वपूर्ण नीतियां बनाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। 500 और 1000 के नोट की नोटबंदी एक ऐसी ही कार्रवाई थी जिसने देश के सभी नागरिकों को बुरी तरह से प्रभावित किया। कराधान कानूनों में अनिश्चितता हमारे आर्थिक विकास के लिए एक और बड़ा खतरा है।

कानून की खराब गुणवत्ता के लिए सांसदों या विधायिकाओं को पूरी तरह से जिम्मेदार ठहराना उचित नहीं, हम आम आदमी भी समान रूप से जिम्मेदार हैं। सांसद और विधायक कानून बनाने के लिए चुने जाते हैं लेकिन हम उम्मीद करते हैं कि वे हमारी सड़कों, नालियों की समस्या सुलझाएंगे, यह भूलकर कि इस उद्देश्य के लिए हमारे पास नगर निकाय और ग्राम पंचायतें हैं। हम अपने प्रतिनिधियों से इस पर भी सवाल नहीं करते कि कानून बनाते समय व्यापक हितों का ध्यान नहीं रखा गया या ऐसे कानूनों पर चर्चा के दौरान सदन से वे अनुपस्थित रहे। हम बेहतर कानूनों की अपेक्षा करते हैं तो हमें अपने प्रतिनिधियों के प्रदर्शन के बारे में अधिक सतर्क रहना चाहिए। साथ ही, हमारे प्रतिनिधियों को संवैधानिक जनादेश और लोकतंत्र के मंदिरों में प्रवेश करते समय ली गई शपथ का ध्यान रखना चाहिए।

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