स्टेन स्वामी का ब्लॉगः झारखंड पुलिस मेरे पीछे थी और मैं पुलिस के पीछे!

By फादर स्टेन स्वामी | Updated: March 6, 2020 20:17 IST2020-03-06T20:17:56+5:302020-03-06T20:17:56+5:30

भारत के उत्तर से दक्षिण में मजदूरों का प्रवास का आकार चौंकाने वाला है, जहां केरल में 36 लाख उत्तर भारतीय कामगार हैं, वहीं तमिलनाड में 10 लाख, जबकि कर्नाटक में गणना अभी जारी है।

Father stan swamy blog Jharkhand Police caa nrc npr bhima koregaon pathalgadi movement | स्टेन स्वामी का ब्लॉगः झारखंड पुलिस मेरे पीछे थी और मैं पुलिस के पीछे!

पत्थलगढ़ी आंदोलन से संबंधित सभी मामलों को वापस लेने का आदेश जारी हुआ।

Highlightsकेरल के अपवाद के साथ अन्य राज्य सरकारों नें इन प्रवासी मजदूरों के शोषण और पतन पर अपनी आंखें बंद कर रखी हैं।धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक ताकतों से सांप्रदायिक पार्टी की हार मेरे और मेरे सह-आरोपी सहयोगियों के लिए बहुत गहरा का मतलब था।

2019 की दूसरी छमाही मेरे लिए बहुत थका देने वाला, लेकिन शांत अनुभव था। झारखंड पुलिस मेरे पीछे थी और मैं पुलिस के पीछे! अंतर यह था कि पुलिस का कार्य असंवैधानिक था और मेरा कानूनी। 'गिरफ्तारी वारंट' का जारी किया जाना, मुझे 'फरार' घोषित करना, मेरे कार्यस्थल-सह-निवास पर छापा डालना, निचली अदालत के आदेश से मेरा व्यक्तिगत सामान जब्त करना और इससे संबंधित अन्य कार्रवाइयों को दिसंबर में झारखंड उच्च न्यायालय द्वारा अवैध घोषित किया गया।

मैं दक्षिणी भारत के भ्रमण पर था, जिसके दौरान मैंने तमिलनाड, केरल और कर्नाटक में यात्रा की। वहां शहरों और कस्बों में उत्तर भारतीय कामगार युवक-युवतियों दिख ही जाते हैं। वहां न तो वे स्थानीय आबादी के साथ बातचीत करते हैं न ही स्थानीय लोग उनके साथ बात करने की जहमत उठाते हैं। वहां पर उत्तर भारतीयों के लिए टच-मी-नॉट की सी स्थिति व्याप्त है। 

मैं कई सामाजिक लोगों, समूहों, संगठनों और आंदोलनकारियों से मिला। भारत के उत्तर से दक्षिण में मजदूरों का प्रवास का आकार चौंकाने वाला है, जहां केरल में 36 लाख उत्तर भारतीय कामगार हैं, वहीं तमिलनाड में 10 लाख, जबकि कर्नाटक में गणना अभी जारी है।

ये लोग ज्यादातर युवा हैं जो मध्य भारत, उत्तर-पूर्व और बिहार के आदिवासी क्षेत्रों से आते हैं। वे रोजगार पाने की उम्मीद में समूहों में पलायन करते हैं जिससे उनके परिवारों का भरण-पोषण हो सके, जो उनके गृह राज्यों में संभव नहीं। लेकिन उनके काम करने और रहने की स्थिति भयावह है।

वे ज्यादातर सड़क निर्माण, इमारतों के निर्माण, फ्लाई-ओवर और मेट्रो-लाइन बिछाने का काम करते हैं जो सबसे कठिन कार्यों में से हैं। उनमें से अधिकांश बेइमान श्रम-ठेकेदारों की चपेट में हैं जो उनकी अल्प आय का एक हिस्सा गबन कर जाते हैं।

केरल के अपवाद के साथ अन्य राज्य सरकारों नें इन प्रवासी मजदूरों के शोषण और पतन पर अपनी आंखें बंद कर रखी हैं। मैंने अपने दोस्तों से इन मजदूरों की उपस्थिति को नजरंदाज करने के बजाय उनके कार्यस्थल और घरों में उनसे मिलने के लिए कहा। यह भी कहा की वे यह पता करें कि क्या उन्हें सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन, शारीरिक सुरक्षा आदि मिल हैं है और उन्हें संबंधित सरकारी कार्यालय से संपर्क करने में मदद करें। संक्षेप में मैंने इन दोस्तों को उन्हें अपना मानवीय चेहरा दिखाने के लिए मनाने की कोशिश की।

साथियों को कभी न्याय मिलेगा?

शुरू में यह घने काले बादलों के बीच चलने जैसा था। मैं कहाँ जाऊँगा? किनसे मिलूँगा? क्या वे मुझे साथ रखेंगे? और अगर वे ऐसा करेंगे, तो उन पर क्या प्रभाव पड़ सकता है?  मुझे कब तक भागना होगा?.. आदि। एक और महत्वपूर्ण चिंता का विषय थे वे मामले जो मेरे जेसुइट सहयोगी और वकील निचले और उच्च न्यायालय में संभाल रहे थे। मामलों पर बहस कौन करेगा?  सुनवाई कब तक चलेगी? अदालत के के खर्चों और वकीलों की फीस के लिए आवश्यक निधि कहाँ से आएगी? और इन सब के अंत में, क्या मुझे और मेरे सह-आरोपी साथियों को कभी न्याय मिलेगा?

जमानत देने वाला भी कोई नहीं

मुझे बहुत सारे संपर्कों के होने का विशेषाधिकार प्राप्त है। मैं उनके पास मैं जा सकता हूं और सुरक्षा प्राप्त कर सकता हूँ। मैं राज्य सरकार को अदालत में ले जा सकता हूं और कानूनी सुरक्षा भी प्राप्त कर सकता हूं, पर ऐसे कई निर्दोष व्यक्ति अभी भी जेलों में बंद हैं जिन्हें अन्यायिक रूप से कैद किया गया है, उन्हें जमानत देने वाला भी कोई नहीं है। जब मैं भीमा-कोरेगांव मामले के बारे में सोचता हूं, जिसमें मुझे एक "संदिग्ध" के रूप में भी फंसाया गया है, तो मामले में आज भी कई प्रख्यात बुद्धिजीवी, वकील, कवि, मानवाधिकार रक्षक सलाखों के पीछे हैं। वे मुझे अपने जीवन में मिले सबसे अच्छे लोग हैं।

उन्होंने गरीबों और हाशिए के लोगों के लिए अपने जीवन का सबसे अधिक और सर्वोत्तम मूल दिया है। एक साल से अधिक समय बीत चुका है और उन्हें जमानत भी नहीं मिल सकी है। मेरा दिल उनके लिए दुखित है। मेरे जीवन को यह बात औचित्य देती है और शायद इसीलिए मैं झारखंड के उन हजारों अंडर-ट्रायल कैदियों को राहत पहुंचाने के अपने प्रयासों को दोगुना बल से आगे बढ़ा पा रहा हूँ जिनकी ओर से मैंने झारखंड उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की है।

दरवाजों पर दस्तक

मैं पहले से ही लोगों के संगठनों और आंदोलनों के व्यक्तिगत कार्यकर्ताओं के साथ संपर्क में था। मैंने उनके दरवाजे पर दस्तक दे पाने की अपनी स्वतंत्रता का प्रयोग किया। उन्होंने न केवल मुझे सम्मानपूर्वक स्वीकारा, बल्कि सामाजिक रूप से संबंधित व्यक्तियों, समूहों और संगठनों से संपर्क करने के लिए प्रेरित भी किया।

हम मिले और अपने राज्यों तथा देश भर में समग्र रूप से क्या हो रहा इसपर अपने अनुभव साझा किए। वे यह समझने के लिए उत्सुक थे कि प्रवासी मजदूरों को अपना घर छोड़ दक्षिण भारत जैसे एक पूर्णतया अपरिचित स्थान पर आने के लिए क्या मजबूर करता है? उन्होंने मुझे आश्वासन दिया कि वे इन मुद्दों को संभव सीमा तक उठाएंगे। 

जेसुइट समुदाय जिनके दरवाजे मैंने खटखटाए उन्होंने मुझे आगंतुक या अतिथि के रूप में नहीं बल्कि उनके समुदायों के सदस्य के रूप में स्वीकार किया। उन्होंने वह सब कुछ जो उनके पास था, मेरे साथ बांटा। वे मध्य भारत के स्वदेशी लोगों की स्थिति के संबंध में, साथ हीं उन सभी मामलों के बारे में भी जानना चाहते थे जिनका मैं सामना कर रहा हूं। मैं जितने भी जेसुइट्स से मिला, उन्होंने मेरे साथ अपनी एकजुटता व्यक्त की और जानना चाहा की मैं क्या कर रहा हूँ।

धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक ताकतों से सांप्रदायिक पार्टी की हार

दिसंबर के अंत में, धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक ताकतों से सांप्रदायिक पार्टी की हार मेरे और मेरे सह-आरोपी सहयोगियों के लिए बहुत गहरा का मतलब था। सरकार बनने के कुछ घंटों के भीतर ही कैबिनेट के पहले फैसले ने हम सभी को एक बड़ी राहत दी। इस फैसले में पत्थलगढ़ी आंदोलन से संबंधित सभी मामलों को वापस लेने का आदेश जारी हुआ। झारखंड के आदिवासी-मूलवासी लोग धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के मूल्यों को बहाल करने में सक्षम हैं। स्वदेशी-आदिवासी अपने शांत तरीके से देश के बाकी हिस्सों को रास्ता दिखाएंगे ऐसा मेरा विश्वास है।

सत्य अंत में अवश्य जीतेगा, लेकिन कब?

मेरे घर झारखंड में स्थित मेरे जेसुइट सहयोगियों और वकीलों ने सफर के दौरान पूरे समय मुझे जिला और उच्च न्यायालय की कार्यवाही से मुझे वाकिफ रखा। मुझे राज्य के एडवोकेट जनरल द्वारा औपचारिक रूप से ‘खुली अदालत’ में मेरे खिलाफ लगाए गए ‘आरोपों के प्रकार’ - कि मैं एक 'खूंखार अपराधी' हूं - कि मैं पत्थलगढ़ी आंदोलन का 'मास्टरमाइंड' था – की मैंने गरीब-अज्ञानी आदिवासियों को भारतीय संघ से अलगाव के इरादे से राज्य के खिलाफ हिंसक कार्रवाई करने के लिए उकसाया हैं और इसलिए यह देशद्रोह’ का मामला है, से बहुत पीड़ा हुई।। उन्होंने पत्थलगढ़ी आंदोलन को भीमा-कोरेगांव मामले से जोड़ने की कोशिश की, जिसका अर्थ था कि दोनों विद्रोह नक्सलियों के इशारे पर किए गए थे। यह एक छोटी सी सांत्वना यह रही है कि इन आरोपों का मेरे वकीलों द्वारा मजबूती से जवाब दिया गया।

सुरंग की दूसरी ओर प्रकाश है!

हम सीएए, एनआरसी, एनपीआर लगाने के खिलाफ पूरे देश में प्रतिरोध आंदोलनों में एक बड़े पैमाने पर वृद्धि देख रहे हैं। इस विरोध में सभी उम्र, सभी धर्मों, सभी जातियों और सभी क्षेत्रों के लोग सड़क पर उतर रहे हैं। वे बहुत स्पष्ट शब्दों में बोल रहे हैं कि संविधान, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र समर्थन में खड़े हैं। राष्ट्र के विवेक का दोहन किया जा रहा है। हम आशा करते हैं कि यह विवेक-जागृति जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी फैलेगी, कि सत्ता, नौकरशाह, कानूनी पेशेवर और बुद्धिजीवी अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनने में पीछे नहीं रहेंगे। हम आशा पर जीते हैं।

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