जनता की मांगों पर कैसा होना चाहिए सरकार का रवैया? विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग
By विश्वनाथ सचदेव | Updated: December 3, 2020 14:12 IST2020-12-03T14:11:35+5:302020-12-03T14:12:37+5:30
पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश आदि से देश की राजधानी दिल्ली में फरियाद लेकर आने वाले ये किसान अपनी मांगों को लेकर आंदोलनरत हैं.

कानून बनाने से पहले देश की संसद में इस पर दलगत राजनीति से ऊपर उठकर विस्तृत चर्चा होती, पर ऐसा हुआ नहीं. (photo-ani)
आपने भी देखा होगा वह दृश्य टीवी पर, जिसमें दिल्ली की सीमा पर आंदोलन कर रहा एक किसान एक सिपाही को पानी पिला रहा है- और शायद आपके ध्यान में भी आया हो कि यह सिपाही भी उनमें से एक था, जिन्होंने बीती रात इन किसान आंदोलनकारियों पर कड़कड़ाती सर्दी में ठंडे पानी के गोलों से बौछार की थी.
इस बौछार शब्द से अंदाज नहीं हो सकता कि ठंडे पानी की मार का मतलब क्या होता है. जिससे यह पानी डाला जाता है, अंग्रेजी में उसे ‘वाटर कैनन’ कहते हैं. वाटर कैनन अर्थात पानी की तोप. हां, एक तरीके से यह पानी से तोप के गोलों जैसा काम लेना ही है. तोप का गोला शरीर को नष्ट कर देता है, पानी गोलों से व्यक्ति के साहस को खत्म करने की कोशिश की जाती है.
पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश आदि से देश की राजधानी दिल्ली में फरियाद लेकर आने वाले ये किसान अपनी मांगों को लेकर आंदोलनरत हैं. इनकी मांगें कितनी सही हैं, कितनी गलत, इस पर विवाद हो सकता है. शायद बातचीत से कुछ समाधान निकल आए इस समस्या का. लेकिन मुद्दा सिर्फ विवादास्पद कृषि-कानून ही नहीं है, अब तो इस मुद्दे पर भी विचार होना जरूरी है कि जनता की मांगों को लेकर सरकार का रवैया कैसा होना चाहिए.
विचार का विषय यह भी होना चाहिए कि जनतांत्रिक व्यवस्था में जब जनता कुछ मांगें लेकर अपनी सरकार के समक्ष आए तो सरकार को उसमें सिर्फ षड्यंत्न ही क्यों दिखता है? देश के किसानों के हितों की चिंता करने का दावा करने वाली सरकार ने कृषि से संबंधित तीन कानून पारित किए हैं और सरकार का दावा है कि ये कानून किसानों को शोषण से मुक्त करने वाले हैं.
किसानों को लग रहा है कि ये नये कानून बाजार की परंपरागत व्यवस्था को बदल कर यह कुछ पूंजीपतियों के हितों को पूरा करने की कोई चाल है. ऐसे में, होना तो यह चाहिए था कि स्थिति को देखते हुए यह कानून बनाने से पहले देश की संसद में इस पर दलगत राजनीति से ऊपर उठकर विस्तृत चर्चा होती, पर ऐसा हुआ नहीं.
जब इस कानून का विरोध हुआ तो इसे राजनीतिक विरोधियों का षड्यंत्न-निरूपित कर दिया गया. पंजाब के किसानों ने पहल की, दो महीने तक राज्य में आंदोलन चलता रहा. सरकार के कानों पर जूं भी नहीं रेंगी. तब किसानों ने ‘दिल्ली चलो’ का नारा दिया. इसे लेकर दिल्ली सरकार का रुख कुछ ऐसा रहा जैसे दिल्ली पर कोई हमला हो रहा है.
आंदोलनकारी किसानों को दिल्ली पहुंचने से रोकने के लिए हरियाणा और उत्तर प्रदेश के सिपहसालारों ने सारी ताकत लगा दी. पर इस सबके बावजूद हजारों की संख्या में किसान अपनी राजधानी की सीमा तक पहुंच ही गए. पर सीमा पर उन्हें इस तरह रोका गया जैसे दुश्मन फौजों को रोका जाता है.
पानी की तोपें, अश्रु गैस के गोले, लाठियां तो काम में लिए ही गए, रास्तों में अवरोध के लिए सड़कें खोद दी गईं, ताकि किसान आगे न बढ़ पाएं. स्थिति हाथ से निकलती देख सरकार ने बातचीत का प्रस्ताव रखा, पर इसमें भी शर्ते लगा दीं. आंदोलनकारियों को शर्तो वाली वार्ता मंजूर नहीं थी, वे प्रधानमंत्नी को अपने मन की बात बताना चाहते थे. होना तो यह चाहिए था कि देश की सरकार आगे बढ़कर देशवासियों की परेशानी समझने की कोशिश करती, पर उसे इसमें अपनी हेठी लग रही थी!
बहरहाल, बातचीत शुरू हुई है. कोई नतीजा भी शायद निकले. पर देश के किसानों के साथ जिस तरह का व्यवहार किया गया है, वह बहुत कुछ सोचने के लिए बाध्य करता है. यह पहली बार नहीं है कि जब प्रदर्शनकारियों पर अश्रुगैस के गोले छोड़े गए हैं अथवा ठंडा पानी डाला गया है.
अपनी मांगों के लिए प्रदर्शन करना जनतांत्रिक अधिकार है और जनता के इस अधिकार की रक्षा करना जनतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकार का कर्तव्य है. यह बात कभी भी नहीं भुलाई जानी चाहिए कि प्रदर्शन के लिए विवश किए गए लोग भी देश के सम्मानित नागरिक हैं. उन्हें षड्यंत्नकारी, आतंकवादी या असामाजिक तत्व घोषित करके दमन का तरीका अपनाने का अधिकार प्राप्त कर लेना किसी भी जनतांत्रिक सरकार के लिए उचित नहीं माना जा सकता.