ब्लॉग: लोकतंत्र के लिए चुनाव सुधारों की क्यों है आज सख्त जरूरत?
By राजेश बादल | Updated: March 29, 2023 10:29 IST2023-03-29T10:29:56+5:302023-03-29T10:29:56+5:30

ब्लॉग: लोकतंत्र के लिए चुनाव सुधारों की क्यों है आज सख्त जरूरत?
भारतीय लोकतंत्र के लिए नई चुनौती उभर रही है चुनाव सुधारों के बारे में. वैसे तो आधी सदी पहले से ही निर्वाचन प्रणाली और उसमें व्यावहारिक दोष नजर आने लगे थे. उसके बाद चर्चाएं और बहसें तो बहुत हुईं, मगर उनका कोई परिणाम नहीं निकला. सियासत ने चुनाव तंत्र में बेहतरी की जरूरत को कभी गंभीरता से नहीं लिया. एक बार ही राजीव गांधी सरकार ने दल-बदल की बीमारी से निपटने के लिए बेहतरीन कानून बनाया था. उस जमाने में सरकार को विपक्ष का भी भरपूर समर्थन मिला था. यानी सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष दल-बदल रोकने के लिए एक मंच पर दिखाई दिए थे. भारतीय राजनीति में नैतिकता और शुचिता को प्राथमिकता से स्थान दिया गया था.
अफसोस! बाद के वर्षों में इस कानून के अमल पर ध्यान नहीं दिया गया और चुनाव अभियान लोकतंत्र के पवित्र अनुष्ठान के स्थान पर उद्योग बन गया. इन दिनों एक नई कुरीति चुनाव जीतने के लिए अपनाई जाने लगी है. इसे रोकने के लिए एक बार फिर चुनाव सुधार सर्वोच्च प्राथमिकता की मांग करते हैं. यह कुरीति चरित्र हनन के रूप में सामने आई है.
कुछ चुनावों से यह देखने को मिल रहा है कि प्रतिद्वंद्वी को पटखनी देने के लिए पार्टियां नैतिकता के सारे मापदंडों को ध्वस्त कर रही हैं. वे सारे हथकंडों का सहारा लेती हैं और तथ्यों को तोड़-मरोड़कर चरित्र हनन करती हैं. डिजिटल माध्यमों के युग में आवाज और चित्र संपादन के जरिये वे मतदाताओं को गलत जानकारी परोसती हैं और एक-दूसरे के खिलाफ अश्लीलतम आरोप लगाने से भी नहीं झिझकतीं. चुनाव-दर-चुनाव यह प्रवृत्ति बढ़ती ही जा रही है.
हमारे संसदीय पूर्वजों ने भी शायद कभी नहीं सोचा होगा कि भारतीय राजनीति का स्तर इतना गिर सकता है कि उस पर अंकुश लगाने के लिए कानूनी प्रावधान करना पड़े, इसीलिए निर्वाचन अधिनियम मौजूदा दौर के अनेक चुनावी अपराधों को लेकर चुप्पी साधे हुए है. इसका लाभ सियासी पार्टियां उठाती हैं. उन्हें पता होता है कि चुनाव आयोग असहाय है. उसे असीमित सख्त अधिकार नहीं मिले हैं, जिनसे वह राजनीतिक दलों पर अपना चाबुक चला सके इसीलिए वह कई बार जानकर भी अनजान बना रहता है. लेकिन यह हकीकत है कि यदि किसी अपराधी को पता हो कि सामने खड़ी पुलिस के पास जंग लगी बंदूकें हैं या फिर जो राइफलें वह लिए हुए है, उनमें कारतूस ही नहीं हैं तो फिर वह बेखौफ होकर जुर्म करता है.
निर्वाचन आयोग का कुछ यही हाल है. वह न्यायालयों में अपनी मजबूरी का रोना कई बार रो चुका है और उसे न्यायालयों से फटकार भी मिली है पर उससे समाधान नहीं हुआ. दूसरी ओर यह भी ध्यान देने की बात है कि इसी निर्वाचन अधिनियम का इस्तेमाल करते हुए टी. एन. शेषन ने सियासत को हिलाकर रख दिया था. जब 1996 के आम चुनाव हुए तो शेषन ने यह कहकर तहलका मचा दिया कि चुनाव में गड़बड़ी करने वालों को सीधे जेल पहुंचाऊंगा और वे जिंदगी भर चुनाव नहीं लड़ सकेंगे.
एक अवसर पर तो उन्होंने यह भी कहा था कि वे भ्रष्ट अफसरों और लीडरों का नाश्ता करते हैं. उनके तेवरों और कड़क मिजाज से केंद्र और राज्यों की हुकूमतें थर-थर कांपती थीं. आज कमोबेश हर जागरूक मतदाता सोचता है कि काश! एक बार टी.एन. शेषन का दौर आ जाए.
चुनाव तंत्र में यह विकृति कोई रातोंरात नहीं पनपी. लंबे समय तक चुनाव जीतने के लिए राजनीति में धनबल और बाहुबल का इस्तेमाल होता रहा और यह खामोशी से बढ़ता रहा. नब्बे का दशक आते-आते पार्टी का टिकट पाने के लिए छवि और लोकप्रियता हाशिये पर चली गई. राजनीतिक दल यह साफ-साफ कहने लगे कि जीतने वाले उम्मीदवार को ही पार्टी टिकट देगी.
जाहिर है कि इसका अर्थ यह था कि पार्टी की जीत के लिए साम, दाम, दंड, भेद अपनाए जाने चाहिए. जो प्रत्याशी इसमें भारी पड़ेगा, वही जनप्रतिनिधि होगा. ऐसे में अपराधी तत्वों की खुल्लम-खुल्ला मदद ली जाने लगी. नौबत यहां तक आ पहुंची कि मतदाताओं का ठेका लिया जाने लगा, जाति और मजहब के आधार पर बस्तियों के मतदाता खरीदे जाने लगे. उन्हें नगदी, शराब, साड़ियां, टीवी, फ्रिज, वाशिंग मशीन, साइकिलें, मोबाइल फोन और अन्य उपहार वोट के बदले अग्रिम घूस की तरह मिलने लगे.
नब्बे के दशक में यह कुप्रवृत्ति चरम पर पहुंच चुकी थी. राजनीतिक अस्थिरता के दौर में वोटरों को लुभाने के लिए सारे हथकंडे अपनाए जा रहे थे. अपनी रिपोर्टिंग के दिनों में मैंने चंबल के बीहड़ों के सबसे खतरनाक डाकू निर्भय गुर्जर और उसके गिरोह के साथ दो-तीन दिन बिताए थे. उस डाकू ने कैमरे के सामने स्वीकार किया था कि वह विधानसभा और लोकसभा चुनाव में अपने उम्मीदवार खड़े करता है. उसे पार्टी से कोई मतलब नहीं था. जो दल उसके लोगों को टिकट देता था, उनके चुनाव लड़ने का खर्च उठाता था और उस पार्टी को भी भारी चंदा देता था.
चुनाव जीतने के बाद वे विधायक और सांसद डाकू निर्भय गुर्जर के हितों की रक्षा करते थे. मतदान से पहले डाकू गिरोह गांव-गांव जाता और फायरिंग करते हुए अपने उम्मीदवार व पार्टी का चुनाव चिह्न बताता था. इस तरह अनेक प्रत्याशी जीतते थे. आज भी स्थानीय स्तर पर अपराधी गिरोह प्रत्याशियों से पैसे लेकर उनकी जीत सुनिश्चित करने का वादा करते हैं. भारतीय लोकतंत्र का इससे भयावह रूप और क्या हो सकता है.