वादों के संग चुनावी जंग में टूट रहा सब्र का बांध, गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग
By गिरीश्वर मिश्र | Updated: November 3, 2020 14:36 IST2020-11-03T14:34:35+5:302020-11-03T14:36:02+5:30
स्वतंत्नता संग्राम से लेकर अब तक उसने कई जन्म लिए हैं, या कहें उसके कई संस्करण हो चुके हैं. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने राजनीति के लिए नैतिकता को एक जरूरी शर्त बनाकर पेश किया था और राजनेता को जनसेवक की तरह रहने की सलाह दी थी.

भारतीय राजनीति की प्रवृत्ति जनसेवा और जनप्रतिनिधित्व की जगह सत्ता को अगवा करने जैसी होने लगी है. (file photo)
जनता जनार्दन ही लोकतंत्र में सर्वोच्च सत्ता होती है. शासन की जनतांत्रिक विधा में यह एक सर्वस्वीकृत सिद्धांत है. इसके अंतर्गत राजनीति जनता से जन्मती है और जनता के लिए ही होती है.
इस पृष्ठभूमि में यदि भारतीय जनता के बीच राजनीति के जीवन को देखा जाए तो लगता है कि स्वतंत्नता संग्राम से लेकर अब तक उसने कई जन्म लिए हैं, या कहें उसके कई संस्करण हो चुके हैं. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने राजनीति के लिए नैतिकता को एक जरूरी शर्त बनाकर पेश किया था और राजनेता को जनसेवक की तरह रहने की सलाह दी थी.
अपने लिए सेवाधर्म चुनना और उस पर चलना सबके लिए संभव नहीं था क्योंकि इस रास्ते पर ‘भोग’ की जगह ‘त्याग’ पर जोर दिया गया था. वैसे तो ऊपर-ऊपर से आज भी नेतागण सेवा की ही कसमें खाते हैं पर राजनीति में आने के बाद जिस तरह ज्यादातर नेताओं की धन समृद्धि का ग्राफ ऊपर उठता है, वह स्वयं बहुत कुछ बयान कर देता है. इतिहास गवाह है कि नैतिक दृष्टि से राजनीति असुरक्षित होती गई है और इसका असर जीवन के और क्षेत्नों में भी फैलता गया है.
भारतीय राजनीति की प्रवृत्ति जनसेवा और जनप्रतिनिधित्व की जगह सत्ता को अगवा करने जैसी होने लगी है. प्रत्याशीगण की जोर-आजमाइश और दबंगई घात लगाकर कब्जा करने जैसी होती जा रही है. वे कुछ भी करने के लिए तैयार रहते हैं; यहां तक कि प्रतिद्वंद्वी की हत्या भी. राजनीति के व्यापार का जनता से लेन-देन वोट तक सिमटता जा रहा है.
संयोग कुछ ऐसा बनने लगा है कि देश में जब देखो तब चुनाव के दृश्य अब आम हो रहे हैं. हर दल बढ़-चढ़कर दावे और वादे करता है. इस मौके पर राजनैतिक दलों के संकल्प-पत्न बनाए जाते हैं जिनमें वोटों के एवज में जनता को मुहैया की जाने वाली सुविधा सूची दी होती है.
इस चुनावी दस्तावेज में हर लोक-लुभावनी घोषणा लिखी रहती है जिसकी कल्पना करते हुए आम आदमी के दिल को सुकून मिलता है. उनका मौखिक विवरण प्रस्तुत करते हुए नेताजी जनता से संवाद बनाने की कोशिश करते हैं. लेकिन जनता बहुत समय तक प्रतीक्षारत दर्शक की भूमिका में नहीं रह सकती. अब उसके सब्र का बांध टूट रहा है और उसे भ्रम में उलझाए रखना संभव नहीं है.