अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: नया साल और आर्थिक संकट की राजनीति

By अभय कुमार दुबे | Updated: January 8, 2020 09:51 IST2020-01-08T09:51:06+5:302020-01-08T09:51:06+5:30

इन अर्थशास्त्रियों का मानना था कि सरकार का सारा जोर औपचारिकीकरण और औपचारिक क्षेत्र पर है. असंगठित क्षेत्र को हाशिये पर डाला जा रहा है. जब तक यह हाशिये पर रहेगा तब तक समाधान नहीं होने वाला. सेंटर फॉर द मॉनिटरिंग ऑफ इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के आंकड़े बताते हैं कि निवेश का भट्ठा बुरी तरह से बैठ चुका है, और उत्पादन भी बुरी तरह से गिर गया है.

economic crisis politics in New year | अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: नया साल और आर्थिक संकट की राजनीति

अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: नया साल और आर्थिक संकट की राजनीति

नया साल आते ही मीडिया मंचों पर चर्चा यह होने लगी है कि 2020 में कौन-सा राजनीतिक मुद्दा बहसों के केंद्र में रहेगा? कुछ टिप्पणीकारों का कहना है कि भारतीय जनता पार्टी नागरिकता के प्रश्न को फोकस में रखना चाहेगी ताकि राष्ट्रवाद और हिंदू पहचान के इर्दगिर्द सारी चर्चा होती रहे. पहली नजर में यह अनुमान गलत नहीं दिखाई देता. गृह मंत्री अमित शाह से हाल ही में एक टीवी चैनल के एंकर ने पूछा कि आप लोग नागरिकता के सवाल पर तो बात करते हैं, लेकिन बेरोजगारी के प्रश्न पर चर्चा से क्यों कतराते हैं? इस पर शाह ने चुनौती सी देते हुए उत्तर दिया कि आप चाहें तो अपने चैनल पर नागरिकता के बजाय बेरोजगारी पर कार्यक्रम करके देख लें. 

उनकी राय साफ थी कि लोगों की दिलचस्पी नागरिकता के सवाल में ही होगी, इसलिए यह प्रश्न टीवी चैनलों की मजबूरी बन जाएगा. जो भी हो, टिप्पणीकारों का एक दूसरा हिस्सा भी है जो मानते हैं कि 2010 का केंद्रीय प्रश्न आर्थिक संकट बनने वाला है, न कि नागरिकता का सवाल. इन लोगों का विश्लेषण है कि सरकार की नागरिकता संबंधी योजनाओं (सीएए, एनआरसी और एनपीआर) से जो असंतोष फैलेगा, वह आर्थिक संकट के साथ जुड़ कर एक अनपेक्षित रूप ले सकता है. उस सूरत में ये दोनों असंतोष आपस में घुलमिल जाएंगे और सरकार के लिए बहुत मुश्किलें खड़ी हो जाएंगी. शायद सरकार को भी इस तरह के अंदेशे हैं, इसलिए वह जल्दी से जल्दी यह साबित कर देना चाहती है कि नागरिकता के प्रश्न पर चल रहा प्रतिरोध आंदोलन विदेशी शक्तियों या संदिग्ध समर्थन के दम पर  चलाया जा रहा है. 

इसी कारण से पीएफआई जैसे एक ऐसे संगठन का नाम उछाला जा रहा है जिस पर आज तक केवल यदाकदा ही चर्चा होती थी. भाजपा की राज्य सरकारें इस संगठन की गतिविधियों के बारे में केंद्र को पत्र लिख रही हैं जिससे सरकार का समर्थन करने वाले मीडिया को नई प्रोपेगंडा मुहिम चलाने की लाइन मिल रही है. हाल ही में कुछ अर्थशास्त्रियों के बीच हुए एक संवाद से निकल कर आया कि आर्थिक संकट हल करने के लिए सरकार के पास राजकोषीय गुंजाइश बहुत कम रह गई है. राजकोषीय घाटा पहले ही नौ फीसदी के आसपास था, और अभी 1.76 लाख करोड़ रुपए रिजर्व बैंक ने लिए हैं. यह घाटा 11 प्रतिशत के करीब पहुंच रहा है. यानी फिस्कल स्पेस बिल्कुल नहीं है सरकार के पास. सरकार को चाहिए था कि राजकोषीय गुंजाइश बढ़ानी थी तो दो-ढाई लाख करोड़ की रियायत कॉर्पोरेट सेक्टर को न देकर असंगठित क्षेत्र पर खर्च किए जाते ताकि बाजार में मांग पैदा होती. 

राजकोषीय घाटा तो बढ़ा दिया गया, पर मांग फिर भी नहीं बढ़ी. इन अर्थशास्त्रियों का मानना था कि सरकार का सारा जोर औपचारिकीकरण और औपचारिक क्षेत्र पर है. असंगठित क्षेत्र को हाशिये पर डाला जा रहा है. जब तक यह हाशिये पर रहेगा तब तक समाधान नहीं होने वाला. सरकार की राजनीतिक समझ कुछ ऐसी ही है. पहले तो वह मान ही नहीं रही थी कि  अर्थव्यवस्था संकट में है. जब दबाव पड़ने लगा तो समझ में आया कि सरकार और सत्तारूढ़ दल जिसे वे दुनिया की सबसे तेज गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था कह रहे थे, वह संकट में है. इस तरह सरकार ने दो साल संकट निवारण की कोई कोशिश ही नहीं की.

सेंटर फॉर द मॉनिटरिंग ऑफ इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के आंकड़े बताते हैं कि निवेश का भट्ठा बुरी तरह से बैठ चुका है, और उत्पादन भी बुरी तरह से गिर गया है. जो निवेश पांच लाख करोड़ का था वह गिर कर 1.36 लाख करोड़ हो गया. यह अर्थव्यवस्था की सुस्ती न होकर मंदी वाली स्थिति है. यानी, वृद्धि दर धीमी नहीं हुई है बल्कि पूरी तरह से ठप हो गई है. जो असंगठित क्षेत्र है उसके आंकड़े पांच साल में एक बार आते हैं. उसके बीच मान लिया जाता है कि असंगठित क्षेत्र उसी रफ्तार से बढ़ रहा है, जिस रफ्तार से संगठित क्षेत्र बढ़ रहा है. यह बात नोटबंदी के पहले ठीक थी, पर उसके बाद नहीं, क्योंकि संगठित क्षेत्र बढ़ रहा था और असंगठित क्षेत्र गिर रहा था. नोटबंदी के बाद हमारी वृद्धि दर नकारात्मक हो गई. उससे हम संभल भी नहीं पाए थे कि जीएसटी लागू हो गया.

विशेषज्ञों की मान्यता है कि आर्थिक संकट के राजनीतिक फलितार्थ तुरंत नहीं दिखाई देते. वे जमा होते रहते हैं, और उन्हें पूरी तरह से सामने आने में दो-ढाई साल का समय लगता है. नोटबंदी से जो नुकसान हुआ था, उसका राजनीतिक असर अब दिखाई दे रहा है. इसी तरह से जीएसटी की गड़बड़ियों से संकट में जो वृद्धि हुई, उसके परिणामों की सिर्फ अभी झलक ही देखी जा सकती है. राज्यों के चुनावों पर इसकी जो छाप अभी देखी जा रही है, वह भी पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है. लेकिन, अब यह संकट कम से कम तीन साल पुराना हो चुका है. सरकार इसका शमन नहीं कर पाई है. अब इसके राजनीतिक फलितार्थ निश्चित रूप से सामने आने शुरू होंगे. ऐसा लगता है कि 2020 आर्थिक प्रश्न की राजनीतिक निष्पत्तियों का वर्ष हो सकता है.

Web Title: economic crisis politics in New year

भारत से जुड़ीहिंदी खबरोंऔर देश दुनिया खबरोंके लिए यहाँ क्लिक करे.यूट्यूब चैनल यहाँ इब करें और देखें हमारा एक्सक्लूसिव वीडियो कंटेंट. सोशल से जुड़ने के लिए हमारा Facebook Pageलाइक करे