पंकज चतुर्वेदी का ब्लॉग: धरती बचाने के लिए सबको मिलकर आना होगा आगे
By पंकज चतुर्वेदी | Published: April 22, 2021 02:28 PM2021-04-22T14:28:54+5:302021-04-22T14:30:53+5:30
Earth Day: पूरी दुनिया आज कोरोना वायरस के प्रकोप से परेशान है. पिछले एक दशक के दौरान देखा गया कि मानवीय जीवन पर संक्रामक रोगों की मार बहुत जल्दी-जल्दी पड़ रही है. इसके पीछे की वजह को समझना होगा.
इस समय पूरा देश बिस्तर, ऑक्सीजन, दवा जैसे संकट से जूझ रहा है और इसकी कमी के लिए तंत्र को दोष दे रहा है. यदि बारीकी से देखें तो हम किसी बीमारी के फैल जाने के बाद उसके निदान के लिए हैरान-परेशान हैं, जबकि देश की सोच समस्या को आने या उसके विकराल होने से पहले रोकना होनी चाहिए.
सारी दुनिया जिस कोरोना से कराह रही है, वह असल में जैव विविधता से छेड़छाड़, धरती के गरम होते मिजाज और वातावरण में कार्बन की मात्रा बढ़ने के मिलेजुले प्रभाव की महज झांकी है. पर्यावरण पर खतरा धरती के अस्तित्व के लिए चुनौती बन गया है, महज पानी के दूषित होने या वायु में जहर तक बात नहीं रह गई है. इन सबका समग्र कुप्रभाव जलवायु परिवर्तन के रूप में सामने आ गया है.
जिन शहरों- दिल्ली, मुंबई, प्रयागराज, लखनऊ, इंदौर, भोपाल, पुणे आदि में कोरोना इस बार सबसे घातक है, वहां की वायु गुणवत्ता बीते कई महीनों से गंभीरता की हद से पार है. दिल्ली से सटे गाजियाबाद को बीते तीन सालों से देश के सबसे प्रदूषित शहर की सूची में पहले तीन स्थानों पर रहने का शर्मनाक ओहदा मिला है.
गत पांच सालों के दौरान दिल्ली के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल एम्स में सांस के रोगियों की संख्या 300 गुना बढ़ गई है. एक अंतरराष्ट्रीय शोध रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर प्रदूषण स्तर को काबू में नहीं किया गया तो साल 2025 तक दिल्ली में हर साल करीब 32000 लोग जहरीली हवा के शिकार हो कर असामयिक मौत के मुंह में जाएंगे.
सनद रहे कि आंकड़ों के मुताबिक वायु प्रदूषण के कारण दिल्ली में हर घंटे एक मौत होती है. दुनिया के तीस सबसे दूषित शहरों में भारत के 21 हैं. हमारे यहां सन् 2019 में अकेले वायु प्रदूषण से 17 लाख लोग मारे गए. खतरे का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वायु प्रदूषण करीब 25 फीसदी फेफड़े के कैंसर की वजह है.
यह तो किसी से छिपा नहीं है कि कोरोना वायरस जब फेफड़ों या श्वास तंत्र पर अपना कब्जा जमाता है तो रोगी की मृत्यु की आशंका बढ़ जाती है. जान लें कि जिन शहरों के लोगों के फेफड़े वायु प्रदूषण से जितने कमजोर हैं, वहां कोविड उतना ही संहारक है.
यह एक कड़वी चेतावनी है कि यदि शहर में रहने वालों की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाई नहीं गई, उन्हें पर्याप्त पौष्टिक आहार नहीं मिला, यदि यहां सांस लेने को साफ हवा नहीं मिली तो कोरोना से भी खतरनाक महामारियां समाज में स्थाई रूप से घर कर जाएंगी.
यह किसी से छुपा नहीं है कि वैश्विक भूख तालिका में हमारा स्थान दयनीय है और पिछले साल की बेरोजगारी की झड़ी के बाद यह समस्या विकराल हो गई है.
आखिर एक वायरस ने इंसान के डीएनए पर कब्जा करने काबिल ताकत हासिल कैसे कर ली? पिछले एक दशक के दौरान देखा गया कि मानवीय जीवन पर संक्रामक रोगों की मार बहुत जल्दी-जल्दी पड़ रही है और ऐसी बीमारियों का 60 फीसदी हिस्सा जंतुजन्य है और इस तरह की बीमारियों का 72 फीसदी जानवरों से सीधा इंसान में आ रहा है.
कोविड-19 हो या एचआईवी, सार्स, जीका, हेंद्रा, इबोला, बर्ड फ्लू आदि सभी रोग भी जंतुओं से ही इंसानों को लगे हैं. दुखद है कि भौतिक सुखों की चाह में इंसान ने पर्यावरण के साथ जमकर छेड़छाड़ की और इसी का परिणाम है कि जंगल, उसके जीव और इंसानों के बीच दूरियां कम होती जा रही हैं.
जंगलों की अंधाधुंध कटाई और उसमें बसने वाले जानवरों के नैसर्गिक पर्यावास के नष्ट होने से इंसानी दखल से दूर रहने वाले जानवर सीधे मानव के संपर्क में आ गए और इससे जानवरों के वायरसों के इंसान में संक्रमण और इंसान के शरीर के अनुरूप खुद को ढालने की क्षमता भी विकसित हुई.
यह बात जानते-समझते हुए भी भारत में गत साल की संपूर्ण तालाबंदी के दौरान भी ऐसी 50 से ज्यादा परियोजनाओं को पर्यावरणीय नियमों को ढील दे कर मंजूरी दी गई जिनकी चपेट में पश्चिमी घाट से ले कर पूर्व का अमेजन कहलाने वाले सघन परारंपरिक वन क्षेत्र आ रहे हैं. नए जंगल के आंकड़े बेमानी हैं क्योंकि जैव विविधता की रक्षा के लिए प्राकृतिक रूप से लगे, पारंपरिक और ऐसे सघन वन अनिवार्य हैं जहां इंसान का दखल लगभग न हो.