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डॉ विजय दर्डा का ब्लॉग: क्यों उठा नए संविधान का सवाल ?

By विजय दर्डा | Updated: August 21, 2023 07:26 IST

प्रधानमंत्री आर्थिक सलाहकार परिषद (ईएएसी-पीएम) के अध्यक्ष बिबेक देबरॉय ने इस स्वतंत्रता दिवस पर अपने लेख में भारत के लिए नए संविधान की जरूरत बताई तो मैं हैरत में पड़ गया! कोई अपनी आत्मा बदलता है क्या? हमारा संविधान हमारे लोकतंत्र की आत्मा है।

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ठळक मुद्देक्या भारत के संविधान को बदलने की जरूरत है?प्रधानमंत्री आर्थिक सलाहकार परिषद (ईएएसी-पीएम) के अध्यक्ष बिबेक देबरॉय ने उठाया है सवालदेबरॉय ने इस स्वतंत्रता दिवस पर अपने लेख में भारत के लिए नए संविधान की जरूरत बताई है

यदि कोई आपसे पूछे कि क्या भारत के संविधान को बदलने की जरूरत है? तो आप में से ज्यादातर लोग सवाल पूछने वाले की ओर निश्चय ही अचरज के साथ देखेंगे कि यह व्यक्ति इस तरह का सवाल आखिर क्यों पूछ रहा है? प्रधानमंत्री आर्थिक सलाहकार परिषद (ईएएसी-पीएम) के अध्यक्ष बिबेक देबरॉय ने इस स्वतंत्रता दिवस पर अपने लेख में भारत के लिए नए संविधान की जरूरत बताई तो मैं हैरत में पड़ गया! कोई अपनी आत्मा बदलता है क्या? हमारा संविधान हमारे लोकतंत्र की आत्मा है।

सुकून की बात है कि विवाद शुरू होते ही सलाहकार परिषद ने तत्काल देबरॉय के विचारों से दूरी बना ली। कहा कि ये देबरॉय के निजी विचार हैं। उनके विचार ईएएसी-पीएम या भारत सरकार के विचारों को नहीं दर्शाते हैं लेकिन सबसे बड़ा सवाल है कि इतने बड़े और जिम्मेदार पद पर बैठे देबरॉय को यह खयाल आया ही कैसे? इस तरह की बात उठाने का उनका आशय क्या है?

उन्होंने लिखा है कि संविधान की प्रस्तावना में अब समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, न्याय, स्वतंत्रता और समानता जैसे शब्दों का क्या मतलब है? हमें खुद को नया संविधान देना होगा। यह पढ़कर तो मैं और हैरत में पड़ गया कि किसी अध्ययन में यह निष्कर्ष निकाला गया है कि लिखित संविधान की उम्र केवल 17 साल होती है! है न अजीब अध्ययन? लेकिन देबरॉय साहब को यह अध्ययन माकूल लगता है।

वे लिखते हैं कि हमारे पास वह संविधान नहीं है, जो हमें 1950 में मिला था। इसमें संशोधन किए जाते रहे हैं और हर संशोधन जरूरी नहीं कि बेहतर ही हो! देबरॉय की नजर में हमारा संविधान एक औपनिवेशिक विरासत है। नए संविधान का मसला बौद्धिक परामर्श का मुद्दा है।

बिबेक देबरॉय की इस बात से मैं बिल्कुल ही इत्तेफाक नहीं रखता हूं। मैं 18 साल तक संसद का सदस्य रहा हूं। संविधान को मैंने पढ़ा है और जानने-समझने की भरपूर कोशिश की है। कई कमेटियों का मैं सदस्य रहा हूं और अपने अनुभव के आधार पर मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि हमारे संविधान को बदलने की कोई आवश्यकता नहीं है।

देबरॉय को संविधान में समाजवाद, न्याय, स्वतंत्रता, धर्मनिरपेक्षता, लोकतांत्रिक और समानता जैसे शब्दों पर आपत्ति क्यों है? किसी भी संविधान की मूल आत्मा यही भाव तो होते हैं! क्या देबरॉय कहीं और से प्रभावित हो रहे हैं? कहीं और से प्रभावित होने का यह गंभीर सवाल मेरे जेहन में इसलिए पैदा हुआ है क्योंकि सन् 2017 में संविधान बदल देने का एक विवादास्पद बयान तत्कालीन केंद्रीय राज्यमंत्री अनंत कुमार हेगड़े ने भी दिया था।

उन्होंने एक कार्यक्रम में कहा था- ‘कुछ लोग कहते हैं कि संविधान में धर्मनिरपेक्ष शब्द का उल्लेख है, तो आपको सहमत होना होगा क्योंकि यह संविधान में है, हम इसका सम्मान करते हैं लेकिन निकट भविष्य में यह बदल जाएगा। संविधान में पहले भी कई बार बदलाव किया गया है। हम यहां संविधान बदलने आए हैं। हम इसे बदल देंगे।’ अनंत कुमार हेगड़े अब हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी बात तो नहीं भुलाई जा सकती न!

जहां तक भारतीय संविधान के औपनिवेशिक विरासत होने का सवाल है तो यह धारणा भी गलत है। भारत के आजाद होने से ठीक पहले 1946 में संविधान सभा की पहली बैठक हुई थी। भारत और पाकिस्तान के आजाद होते ही संविधान सभा भी दो हिस्सों में बंट गई। भारतीय संविधान की रचना करने वाली संविधान सभा में 299 सदस्य थे। संविधान सभा के पहले अध्यक्ष थे सच्चिदानंद सिन्हा और उनके तत्काल बाद अध्यक्ष बने डॉ राजेंद्र प्रसाद।

संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष का महत्वपूर्ण दायित्व डॉ भीमराव आंबेडकर के पास था। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की चाहत थी कि भारतीय समाज का हर वर्ग और हर तबका संविधान की रचना में भूमिका निभाए। डॉ राजेंद्र प्रसाद, पंडित जवाहरलाल नेहरू, डॉ भीमराव आंबेडकर, सरदार वल्लभ भाई पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद सहित देश के जाने-माने विद्वान संविधान की रचना में शामिल थे।

मैं इन सब नामों का जिक्र इसलिए कर रहा हूं ताकि आज की पीढ़ी यह समझ पाए कि कितने दिग्गज लोगों ने मिलकर संविधान की रचना की। संविधान सभा ने 2 वर्ष 11 माह और 18 दिनों के दौरान गंभीर चर्चा की। 12 अधिवेशन हुए और संविधान की रचना के बाद मौजूद 284 सदस्यों ने इस पर हस्ताक्षर किए। संविधान सभा की प्रत्येक चर्चा बैठक में आम जनता और प्रेस को भी भाग लेने की इजाजत थी।

माना जाता है कि इस संविधान पर भारत शासन अधिनियम 1935 का काफी प्रभाव है। जाहिर सी बात है कि हमारे विद्वान सदस्यों ने जिन चीजों को उपयुक्त समझा होगा, उसे शामिल किया होगा। हमारे संविधान की सबसे बड़ी खासियत है कि जनता की भावनाओं के अनुरूप इसमें संशोधन के पर्याप्त अवसर उपलब्ध हैं।

आपको जानकर आश्चर्य होगा कि अभी तक सवा सौ से ज्यादा संविधान संशोधन विधेयक संसद में पेश हुए जिनमें से सौ से ज्यादा तो पारित भी हुए और लागू भी हो चुके हैं। संशोधनों को लेकर हमारा संविधान कितना लचीला है इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो यह है कि 26 जनवरी 1950 को हमारा यह संविधान लागू हुआ और अगले ही साल 10 मई 1951 को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने पहला संविधान संशोधन विधेयक पेश किया। इस संशोधन के माध्यम से आम आदमी को अभिव्यक्ति की आजादी और भाषण का अधिकार मिला।

18 जून 1951 को संसद में पहला संविधान संशोधन विधेयक पारित हो गया। कहने का आशय यह है कि संविधान में जब इतनी तरलता है, इतनी स्वीकार्यता है तो उसे बदलने की बात क्यों?

देबरॉय कहते हैं कि कई देशों ने समय-समय पर संविधान में बदलाव किए हैं। मैं उन्हें दुनिया के सबसे मजबूत लोकतांत्रिक देश यूनाइटेड स्टेट ऑफ अमेरिका का उदाहरण देना चाहूंगा कि पिछले 234 साल से वहां का संविधान लागू है। उसने अब तक तीस से भी कम संशोधन किए हैं। भारत को हमारा संविधान ही सच्चे लोकतंत्र के रूप में प्रतिष्ठित करता है। इसे बदलने की बात तो हम सोच भी नहीं सकते, श्री देबरॉय!

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