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ब्लॉग: घटिया राजनीति का शिकार न हो लोकतंत्र

By विश्वनाथ सचदेव | Updated: May 23, 2024 11:21 IST

आज भी आम आदमी के चेहरे पर वही मुस्कान है। पत्रकारिता में कभी कहा जाता था। एक चित्र सौ शब्दों के बराबर होता है। यही बात कार्टून पर भी लागू होती है। 

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ठळक मुद्देपत्रकारिता में कभी कहा जाता था, एक चित्र सौ शब्दों के बराबर होता हैहम भारत के लोग’ ने अपने लिए एक संविधान बनाया था, यह हर भारतीय को सम्मान और स्वाभिमान से जीने का अधिकार देता हैयह जनतांत्रिक मूल्यों की सफलता का ही एक उदाहरण है कि हमारे देश में नियम से चुनाव हो रहे हैं

हमारे समय के महान कार्टूनिस्ट आर. के. लक्ष्मण ने अपने एक कार्टून में नेताओं के कार्टून न बनाने की बात की थी। उन्होंने लिखा था, ‘अब मैं नेताओं के कार्टून नहीं बनाता, क्योंकि अब स्वयं कार्टून नेता बनने लगे हैं।’ बरसों पहले बनाया गया था यह कार्टून, और लक्ष्मण के बनाए अनेक कार्टूनों की तरह यह आज भी प्रासंगिक है–शायद उस समय से कहीं ज्यादा जब यह कार्टून बनाया गया था। इस कार्टून में लक्ष्मण का ट्रेडमार्क ‘आम आदमी’ हैरानी और चालाक-सी मुस्कान के साथ इस घोषणा को होते सुन-देख रहा है

आज भी आम आदमी के चेहरे पर वही मुस्कान है। पत्रकारिता में कभी कहा जाता था। एक चित्र सौ शब्दों के बराबर होता है। यही बात कार्टून पर भी लागू होती है। जहां तक नेताओं के कार्टून बन जाने का सवाल है, आज की राजनीति में इसके उदाहरण खोजने की आवश्यकता नहीं है– एक ढूंढ़ो हजार मिलते हैं। चुनावों का मौसम अभी चल रहा है। कुछ ही दिन में चुनाव के परिणाम भी आ जाएंगे, नई सरकार बन जाएगी।

नए-पुराने नेता कुर्सियां संभालेंगे। तब किसी लक्ष्मण के ‘आम आदमी’ के चेहरे पर वैसी ही मुस्कान होगी जो उस कार्टून में दिख रही थी पर आज की राजनीति को देखते हुए यह समझना जरूरी है कि मुस्कुराना पर्याप्त नहीं है। यह स्थिति अपने आप में कम पीड़ादायक नहीं है कि हमारी राजनीति का स्तर लगातार नीचे खिसक रहा है। देश के राजनीतिक नेतृत्व ने इस चुनाव-प्रचार के दौरान नई निचाइयों को छूने का जैसे एक रिकॉर्ड बनाया है।

विभिन्न दलों के राजनेताओं में जैसे प्रतियोगिता चल रही थी घटिया राजनीति का उदाहरण प्रस्तुत करने की।हमारी राजनीति सिद्धांतों और मूल्यों के बजाय जुमलों में सिमट कर रह गई है। जुमले की भी एक नई परिभाषा ईजाद की है हमारे नेताओं ने–आप चाहें तो इसे ‘लफ्फाजी’ नाम दे सकते हैं। था कोई जमाना जब हमारे देश में चुनाव की तुलना यज्ञ से की जाती थी।

दूसरे आम चुनाव की बात है। चुनावी सभाओं में एक कविता सुनाई देती थी– ‘ओ मतदाता, तुम भारत के भाग्य-विधाता/ राजसूय सम भारत के हित/ यह चुनाव है होने जाता/ कागज का यह नन्हा- टुकड़ा भारत माता का संबल है/ वोट नहीं है तेरे कर में, महायज्ञ-हित तुलसी दल है।

आज हमारे राजनेता उस तुलसीदल के लिए झूठ और फरेब का सहारा ले रहे हैं। घटिया बोलों की एक प्रतिस्पर्धा चल रही है। किसी भी प्रकार के शर्म या लिहाज के लिए हमारी राजनीति में जैसे कोई जगह नहीं बची। हमारे नेता यह मानकर चल रहे हैं कि हल्की-फुल्की बातों से मतदाता को बरगलाया जा सकता है।

यह जनतांत्रिक मूल्यों की सफलता का ही एक उदाहरण है कि हमारे देश में नियम से चुनाव हो रहे हैं। लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। जनतांत्रिक मूल्यों को आचरण में उतारना ही इस सफलता की असली कसौटी है।इन्हीं मूल्यों का तकाजा है कि धर्म को राजनीति का हथियार बनाने की मानसिकता से उबरा जाए। यह ‘हम’ और ‘वे’ वाली राजनीति समाज को बांटने वाली है, हमें सिर्फ ‘हम’ वाली राजनीति की आवश्यकता है।

हम भारत के लोग’ ने अपने लिए एक संविधान बनाया था, यह हर भारतीय को सम्मान और स्वाभिमान से जीने का अधिकार देता है– सबका साझा है यह अधिकार। इस अधिकार को घटिया राजनीति का शिकार नहीं होने दिया जा सकता।

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