ब्लॉग: घटती आबादी से आदिवासियों के विलुप्त होने का खतरा बढ़ा
By पंकज चतुर्वेदी | Updated: November 2, 2022 09:16 IST2022-11-02T09:16:32+5:302022-11-02T09:16:32+5:30
झारखंड में आदिम जनजातियों की संख्या कम होने के आंकड़े बेहद चौंकाते हैं जो कि सन् 2001 में तीन लाख 87 हजार से घट कर सन् 2011 में दो लाख 92 हजार रह गई.

आदिवासियों के विलुप्त होने का खतरा (फोटो- chaibasa.nic.in)
झारखंड राज्य की 70 फीसदी आबादी 33 आदिवासी समुदायों की है. हाल ही में एक चौंकाने वाला तथ्य सामने आया कि यहां 10 ऐसी जनजातियां हैं, जिनकी आबादी नहीं बढ़ रही है. ये आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षिक रूप से कमजोर तो हैं ही, इनकी आबादी मेें लगातार गिरावट से इनके विलुप्त होने का खतरा भी है.
ठीक ऐसा ही संकट बस्तर इलाके में भी देखा गया. बीजापुर जैसे जिले में आबादी की बढ़ोत्तरी का आंकड़ा 19.30 से घट कर 8.76 प्रतिशत रह गया. ध्यान रहे कि देश भर की दो तिहाई आदिवासी जनजाति मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, गुजरात और राजस्थान में रहती है और यहीं पर इनकी आबादी लगातार कम होने के आंकड़े हैं.
हमें याद रखना होगा कि अंडमान निकोबार और कुछ पूर्वोत्तर राज्यों में बीते चार दशक में कई जनजातियां लुप्त हो गईं. एक जनजाति के साथ उसकी भाषा-बोली, मिथक, मान्यताएं, संस्कार, भोजन, आदिम ज्ञान सबकुछ लुप्त हो जाता है.
झारखंड में आदिम जनजातियों की संख्या कम होने के आंकड़े बेहद चौंकाते हैं जो कि सन् 2001 में तीन लाख 87 हजार से घट कर सन् 2011 में दो लाख 92 हजार रह गई. ये जनजातियां हैं - कंवर, बंजारा, बथुडी, बिझिया, कोल, गौरेत, कॉड, किसान, गोंड और कोरा. इसके अलावा माल्तो-पहाड़िया, बिरहोर, असुर, बैगा भी ऐसी जनजातियां हैं जिनकी आबादी लगातार सिकुड़ रही है.
इन्हें राज्य सरकार ने पीवीजीटी श्रेणी में रखा है. एक बात आश्चर्यजनक है कि मुंडा, उरांव, संथाल जैसे आदिवासी समुदाय जो कि सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्तर पर आगे आ गए, जिनका अपना मध्य वर्ग उभर कर आया, उनकी जनगणना में आंकड़े देश के जनगणना विस्तार के अनुरूप ही हैं.
बस्तर में गोंड , दोरले, धुरबे आबादी के लिहाज से सबसे ज्यादा पिछड़ रहे हैं. कोरिया, सरगुजा, कांकेर, जगदलपुर, नारायणपुर, दंतेवाड़ा जैसे सभी जिलों में आदिवासी आबादी तेजी से घटी है. यह भी गौर करने वाली बात है कि नक्सलग्रस्त क्षेत्रों में पहले से ही कम संख्या वाले आदिवासी समुदायों की संख्या और कम हुई है.
इसमें कोई शक नहीं कि आम आदिवासी शांतिप्रिय हैं. उनकी जितनी भी पुरानी कथाएं हैं उनमें उनके सुदूर क्षेत्रों से पलायन व एकांतवास का मूल कारण यही बताया जाता है कि वे किसी से युद्ध नहीं चाहते थे. अकेले सुकमा जिले से पुराने हिंसा के दौर में पलायन करने वाले 15 हजार परिवारों में से आधे भी नहीं लौटे है.
एक और भयावह बात है कि परिवार कल्याण के आंकड़े पूरे करने के लिए कई बार इन मजबूर, अज्ञानी लोगों को कुछ पैसे का लालच देकर नसबंदी कर दी जाती है. इसके कारण अनेक जनजातियों के विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है.