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कोरोना : महाशक्तियों को भारत से अधिक आया पसीना, पढ़ें आलोक मेहता का ब्लॉग

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: April 5, 2020 12:37 IST

इन दिनों लॉकडाउन के आदेशों का पालन करने के कारण मुझे भी सामान्य दिनों से अधिक लगातार ब्रिटिश, अमेरिकी, फ्रांस, रूस, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, जापान जैसे देशों के अंग्रेजी प्रसारण देखने-सुनने का अवसर मिला है. आश्चर्य तब होता है, जब लंदन और ब्रिटेन में कोरोना के भयंकर प्रकोप तथा निरंतर मौत की संख्या बढ़ने के बावजूद पिछले चार दिनों में बीबीसी वर्ल्ड सर्विस टीवी पर स्पेन, अमेरिका, इटली की खबरों को प्रमुखता मिलती रही और लंदन का हाल संक्षेप में चौथे नंबर पर मिलता रहा.

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पश्चिम के प्रति मेरा कोई पूर्वाग्रह नहीं रहा, न ही वामपंथी विचारधारा का असर रहा. इसके विपरीत जर्मनी में तीन साल काम किया और भारत में रहकर भी विदेशी मीडिया के लिए कुछ काम करता रहा. दुनिया के लगभग 40  देशों की यात्ना के अवसर भी मिले और यूरोप-अमेरिका की यात्नाएं कई बार कीं. निकटस्थ परिजन भी उन देशों में हैं.

दूसरी तरफ भारत देश की समस्याओं और चुनौतियों को निरंतर देखने, समझने और अपना आक्रोश व्यक्त करने में भी कमी नहीं रही. फिर भी  कोरोना वायरस की महामारी से निपटने में यूरोप तथा अमेरिका की कमजोरियों एवं विफलताओं से यह संतोष करने में गौरव भी महसूस होता है कि भारत बहुत हद तक आत्मनिर्भरता की तरफ आगे बढ़ रहा है.

इस संदर्भ में दुर्भाग्य से पश्चिम के मीडिया को आदर्श और अवतार की तरह समझने वाले वर्ग को अमेरिका, ब्रिटेन और अन्य यूरोपियन देशों के टीवी समाचार चैनलों तथा प्रमुख प्रकाशनों की कमजोरियों पर भी थोड़ा ध्यान देना चाहिए.

दूसरे विश्व युद्ध से लेकर भारत में इमरजेंसी के युग और उदार अर्थव्यवस्था के वर्तमान दौर तक राजनीतिक सत्ताधारी या प्रतिपक्ष एवं प्रबुद्ध वर्ग या पश्चिम की चमक से प्रभावित मध्यम वर्ग का एक हिस्सा विदेशी मीडिया को बहुत महत्वपूर्ण मानता रहा है. आजादी से पहले मजबूरी थी और भारत के प्रमुख अंग्रेजी अखबार ब्रिटिश हाथों में थे. आजादी के बाद भी उनका असर बना रहा. इमरजेंसी में इंदिरा गांधी ने पश्चिम के प्रमुख मीडिया संस्थानों को पूर्वाग्रह तथा जासूसी के आरोपों में बाहर कर दिया, वहीं भारतीय मीडिया में सेंसर होने से लोग बीबीसी और अन्य विदेशी समाचार स्रोतों पर निर्भर रहने लगे.

प्रतिपक्ष की आवाज बनने के कारण जनता पार्टी की 1977 की सरकार से मनमोहन  सरकार तक पश्चिम के मीडिया तथा भारत के दिल्ली केंद्रित अंग्रेजी मीडिया को जरूरत से ज्यादा अहमियत मिलती रही.

बहरहाल वर्तमान दौर में न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे अमेरिकी प्रकाशन या बीबीसी जैसे पश्चिमी देशों के प्रसारण संस्थान भारत के मीडिया को सत्ता की कठपुतली और लोकतांत्रिक सरकार द्वारा कोरोना संकट में गरीबों के पलायन में अव्यवस्था, स्वास्थ्य सेवाओं में कमियों, गड़बड़ियों, जम्मू-कश्मीर में 370 हटाने और कुछ नेताओं को नजरबंद रखने की खबरों व टिप्पणियों को अधिकाधिक उछाल रहे हैं.

सबसे मजेदार बात यह है कि यह सामग्री भी वह यहीं सरकार से असंतुष्ट अथवा नक्सल और अतिवादी संगठनों से संपर्क सहानुभूति रखने वाले कुछ कथित पत्नकारों-अभियानकर्ताओं से जुटाते हैं. फिर वही लोग उन विदेशी मीडिया को उद्धृत करके भारत में उछालते हैं.  भारत में यही लोग कभी यह नहीं देखते कि कोरोना में ब्रिटिश, इटली और अमेरिकी सरकार के निकम्मेपन और स्वास्थ्य सेवाओं की बुरी हालत पर बीबीसी टेलीविजन की वल्र्ड सर्विस या अमेरिकी मीडिया में कितनी खबरें और प्रतिपक्ष के नेताओं - समाज के ठेकेदारों की कितनी टिप्पणियां आ रही हैं.

इन दिनों लॉकडाउन के आदेशों का पालन करने के कारण मुझे भी सामान्य दिनों से अधिक लगातार ब्रिटिश, अमेरिकी, फ्रांस, रूस, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, जापान जैसे देशों के अंग्रेजी प्रसारण देखने-सुनने का अवसर मिला है. आश्चर्य तब होता है, जब लंदन और ब्रिटेन में कोरोना के भयंकर प्रकोप तथा निरंतर मौत की संख्या बढ़ने के बावजूद पिछले चार दिनों में बीबीसी वर्ल्ड सर्विस टीवी पर स्पेन, अमेरिका, इटली की खबरों को प्रमुखता मिलती रही और लंदन का हाल संक्षेप में चौथे नंबर पर मिलता रहा.

क्या आजादी के 73 साल बाद भी विदेशी सामान की तरह विदेशी मीडिया को श्रेष्ठ मानकर गुलामी की मानसिकता का परिचय देते रहेंगे? लोकतंत्न और अभिव्यक्ति की स्वतंत्नता का मतलब केवल बुराई देखना नहीं बल्कि उसमें सुधार के लिए हरेक को अपना योगदान देना होता है.

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