कोरोना: सरकार तय करे अपनी प्राथमिकता, पढ़ें एन. के. सिंह का ब्लॉग

By एनके सिंह | Published: March 15, 2020 06:10 AM2020-03-15T06:10:15+5:302020-03-15T06:10:15+5:30

दुनिया भर की 130 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था (भारत तीन ट्रिलियन डॉलर के साथ पांचवें स्थान पर आ गया है) दिखा कर हम आर्थिक विकास पर सीना फुला लेते हैं जबकि दुनिया के 25 करोड़ बच्चे (जिनमें अधिकांश भारत के हैं) जन्म के दो साल के समय में अभाव के कारण पूर्ण-विकास नहीं हासिल कर पाते.

Coronavirus: Narendra Modi Government should decide its priority, read N. K. Singh Blog | कोरोना: सरकार तय करे अपनी प्राथमिकता, पढ़ें एन. के. सिंह का ब्लॉग

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। (फाइल फोटो)

कोरोना वायरस की दहशत से भारत सहित दुनिया में सेंसेक्स के पिछले एक हफ्ते में ढहने से जितना घाटा हुआ है उससे दुनिया की गरीबी मिट सकती थी. बहरहाल, कहते हैं चार हजार साल की समूची मानव-सभ्यता के विकास और विध्वंस के बीच केवल दो वक्त की रोटी का फासला है. यानी अगर दुनिया को सिर्फ दो वक्त का खाना न मिले तो सारी सरकारें, संविधान, संस्थाएं, धर्म-नैतिकता को छोड़ मानव पशु की तरह व्यवहार करने लगेगा. खैर, दुनिया में 2500 मिलियन टन अनाज का उत्पादन कर रोटी का संकट तो लगभग जीत लिया गया है लेकिन एक वायरस ने पूरी दुनिया को हिला दिया है.

अगर यह वायरस इटली की सरकार को ‘बूढ़ों को छोड़ युवाओं को बचाने’ की आदिम मानसिकता में ला सकता है (इटालियन कॉलेज ऑफ एनेस्थेटीशियंस की ताजा गाइडलाइन), भारत की राष्ट्रवादी सरकार के विदेश मंत्नालय को यह कहने को मजबूर कर सकता है कि जो भारतीय विदेशों में जहां हैं वहीं रहें (इटली में 300 भारतीय छात्न फंसे हैं), अरबों करोड़ का नुकसान दे सकता है, व्यापार, आवागमन, रिश्ते सब एक झटके में खत्म करने को मजबूर कर सकता है तो सोचना पड़ेगा कि कहीं हमारे विकास की दिशा तो गलत नहीं है.  

कहीं ऐसा तो नहीं कि हम मानव-संहार के लिए एक तरफ परमाणु-बम और विकास के नाम पर आवाज की तीन गुना गति वाला विमान बनाते रहे लेकिन यह नहीं समझ पाए कि एक वायरस या उसका नया ‘स्ट्रेन’ (दो वायरसों से पैदा होने वाला तीसरा नया वायरस) कभी एच1-एन1 (स्वाइन फ्लू) के नाम पर तो कभी बर्ड फ्लू की शक्ल में हमारे अस्तित्व को चुनौती देता रहेगा.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि हमने भूख पर काफी हद तक काबू पा लिया है और अब अगर लड़ाई है तो गरीब व्यक्ति के वर्षो तक अपर्याप्त भोजन और अपूर्ण पोषक-तत्वों की. कई महामारी- प्लेग, हैजा, चेचक और टीबी पर अंकुश लगा लिया है लेकिन कैंसर अभी भी मानव जीवन को असाध्य बीमारी के रूप में लील रहा है.

दुनिया भर की 130 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था (भारत तीन ट्रिलियन डॉलर के साथ पांचवें स्थान पर आ गया है) दिखा कर हम आर्थिक विकास पर सीना फुला लेते हैं जबकि दुनिया के 25 करोड़ बच्चे (जिनमें अधिकांश भारत के हैं) जन्म के दो साल के समय में अभाव के कारण पूर्ण-विकास नहीं हासिल कर पाते. यह भी हास्यास्पद है कि देश की संसद तीन दिन तक हंगामे के बाद इस बात पर चर्चा कर रही थी कि दंगे में किसका भाषण ज्यादा भड़काऊ था जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा एन-कोरोना को ‘पेन्डेमिक’ (वैश्विक महामारी) घोषित करने के बाद चीन ने इस बीमारी में दी जाने वाली दवा का मुख्य केमिकल भारत को भेजना बंद कर दिया है लिहाजा एंटी-रेट्रोवायरल दवाओं की भारत में बेहद कमी हो सकती है. भारत अपने यहां इन केमिकल स्रोतों को मंगाने के बाद उन्हें दवा के रूप में बाजार में उपलब्ध कराता था.            

हर दो साल पर वायरस का कोई न कोई नया स्ट्रेन विकसित हो जाता है. हाल के दशक में स्वाइन फ्लू, बर्ड फ्लू, इबोला, जीका, सार्स के पांच स्ट्रेन और मर्स ने हमारे मानव अस्तित्व को चुनौती दी. क्या ऐसे में जरूरी नहीं था कि हथियार बनाना बंद कर पहले इन वायरसों पर काबू पाया जाए क्योंकि इनका प्रसार न रोका गया तो एक वायरस दूसरे से मिलकर एक तीसरा स्ट्रेन पैदा कर रहे हैं जिनसे लड़ने में हम अक्सर अक्षम साबित होते हैं. इनमें से कुछ वायरस ऐसे हैं जिनमें मृत्यु दर 90 फीसदी तक है.      

विश्व स्वस्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने चीन की सरकार की तारीफ की कि उसने इतनी भयानक संक्रामक बीमारी पर अपेक्षाकृत कम जनहानि के साथ दो हफ्ते में काबू पा लिया और उसे वुहान के अलावा अन्य राज्यों में उसी शिद्दत से बढ़ने नहीं दिया. ठीक उसी समय दो अमेरिकी एजेंसियों ने, जो दुनिया के देशों में कोरोना से लड़ने की स्थिति का जायजा ले रही थीं, अमेरिकी संसदीय समिति को बताया कि भारत को लेकर विशेष चिंता करने की जरूरत है. जो कारण इन एजेंसियों ने गिनाए उनमें प्रमुख था भारत का 435 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी आबादी घनत्व, जो चीन के मुकाबले तीन गुना है और ऑस्ट्रेलिया व न्यूजीलैंड (चार),  अमेरिका (36) के मुकाबले क्र मश: 110 और 13 गुना. दूसरी समस्या है भारत के ‘सॉफ्ट-स्टेट’ होने की.

चीन में अगर सरकार के अदना से कर्मचारी  ने ऐलान कर दिया कि कोई घर से नहीं निकलेगा तो भूख से तड़पने के बावजूद कोई इसके उल्लंघन की हिमाकत नहीं करेगा. पर भारत में ऐसा संभव नहीं है क्योंकि सरकार विरोधी इसे सरकार का ‘हिटलरशाही रवैया’ मान कर सड़कों पर उतर सकते हैं.

बहरहाल एन-कोरोना के वैश्विक खतरे के मद्देनजर नाना पाटेकर का मशहूर डायलॉग याद आता है ‘एक मच्छर आदमी को ...बना देता है’. आज यह सोचने की जरूरत है कि विकास की परिभाषा में विध्वंसक हथियार या सुपर-सोनिक रफ्तार होने चाहिए या कैंसर और नए-नए वायरस से लड़ना और महामारी किस्म की बीमारियों पर काबू पाना.

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