Congress Rahul Gandhi: यह कहना कि भारत की सबसे पुरानी पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अपने सबसे गंभीर संकट से गुजर रही है, एक घिसी-पिटी बात या टिप्पणी से कहीं अधिक है. मरीज की हालत बहुत नाजुक है. लेकिन जब राहुल गांधी ने पिछले दिनों अहमदाबाद में कहा कि ‘‘गुजरात में कांग्रेस का पुनरुद्धार दो-तीन साल की परियोजना नहीं है’’ तो लोगों ने पार्टी की जमीनी स्थिति के बारे में उनकी सही समझ की सराहना की. कांग्रेसियों ने यह भी महसूस किया कि पार्टी के बारे में उनका स्पष्ट मूल्यांकन, जिसके कारण उन्होंने खुले तौर पर कहा कि 20 से 30 लोगों को ‘भाजपा के मुखबिर’ होने के कारण हटाया जाना चाहिए, बहुत देर से आया. मैं राहुल गांधी का प्रशंसक बिल्कुल नहीं हूं (पत्रकारों को राजनेताओं का प्रशंसक नहीं होना चाहिए) लेकिन विपक्ष का नेता होने के नाते उनका बयान निश्चित ही टिप्पणी योग्य है. अगर मैं यह कहूं कि नरेंद्र मोदी की नई, आक्रामक और अभिनव भाजपा के दौर में कांग्रेस ने अपनी प्रासंगिकता पूरी तरह खो दी है, तो यह नाइंसाफी होगी.
पार्टी के पास अलग-अलग राज्यों में अपना खासा वोट शेयर है, भले ही यह घट रहा हो. पिछले लोकसभा चुनावों में, कांग्रेस ने न केवल उत्तर प्रदेश की बदौलत अपनी सीटों में नाटकीय रूप से सुधार किया, बल्कि 2019 के प्रदर्शन के मुकाबले अपने वोट प्रतिशत में भी वृद्धि दिखाई. जब ‘कांग्रेसमुक्त भारत’ का नारा भाजपा और उसके समर्थक मीडिया के बड़े पैमाने पर प्रचार के साथ राजनीतिक परिदृश्य में जोर पकड़ रहा था, तब कांग्रेस ने 2018 में आश्चर्यजनक रूप से तीन राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जीत हासिल कर सरकार बनाई थी.
दूसरे शब्दों में कहें तो जब कांग्रेस एकजुट होकर खड़ी रही तो उसने चुनाव में अच्छा प्रदर्शन किया. लेकिन इससे दिल्ली विधानसभा में लगातार तीन बार मिली शर्मनाक हार को सही नहीं ठहराया जा सकता, जहां शीला दीक्षित के नेतृत्व में उसने अच्छा प्रदर्शन किया था 15 साल तक. इसलिए राहुल गांधी ने गुजरात के बारे में जो कहा है, उसे कई अन्य राज्यों में भी करना होगा.
हां, भाजपा ने कई रणनीतियों के माध्यम से कांग्रेस के अनेक कार्यकर्ताओं और नेताओं को अपने ‘पक्ष’ में कर लिया होगा. वह अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, वेंकैया नायडू या नितिन गडकरी जैसे उल्लेखनीय राष्ट्रीय अध्यक्षों की सोच से कहीं आगे चली गई है.
भाजपा के ‘हस्तक्षेप’ या कांग्रेस कार्यकर्ताओं को प्रभावित करने की उसकी ‘कला’ के बावजूद, जिन्हें गांधी के अनुसार बाहर निकाल दिया जाना चाहिए, मुद्दा अधिक गंभीर है. कांग्रेस को असल में जल्द ही अपनी पार्टी के ढांचे में आमूलचूल परिवर्तन करना होगा, कड़े निर्णय लेने होंगे. देश भर में इसके नेताओं की कोई जन अपील नहीं है, जो ‘नमो’ की आदमकद और पंथीय छवि के सामने मेल खाती हो.
राज्यों में अंदरूनी कलह हमेशा बनी रही है- नेहरू इंदिरा के जमाने से ही- किंतु आज आम कार्यकर्ता दो मुख्य कारणों से बेहद निराश है: पहला, वह कई सालों से सत्ता से बाहर है और इसलिए काम करने की कोई प्रेरणा नहीं है. दूसरा, वरिष्ठ नेता प्रभावी कार्यक्रमों के माध्यम से छोटे कार्यकर्ता को प्रेरित करने में विफल रहे हैं.
जब राहुल ने अहमदाबाद में वह सनसनीखेज टिप्पणी की थी, तो माना जाता है कि उन्होंने सही फीडबैक लेने हेतु गुजरात के कई कार्यकर्ताओं से व्यक्तिगत रूप से मुलाकात की थी. कांग्रेस के प्रथम परिवार में इसी चीज की बहुत कमी रही है; पार्टी कार्यकर्ताओं को हमेशा परिवार के सदस्यों से निराशा मिलती रही है.
गांधी परिवार खुद को पार्टी से बहुत ऊपर समझता है और वरिष्ठ नेताओं तक से मिलने से इनकार करता है, आम कार्यकर्ताओं की तो बात ही छोड़िए जिन्होंने राहुल की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ में बड़े पैमाने पर उनका समर्थन किया था. इस परिदृश्य में, गुजरात के अभेद्य किले में एक सच्चे कांग्रेस कार्यकर्ता की पीड़ा और चुनौतियों का कोई भी एहसास कर सकता है.
भाजपा ने कांग्रेस के भीतर हतोत्साहित या घुटन महसूस करने वाले लोगों तक पहुंच बनाई है और उन्हें किसी तरह से ‘प्रभावित’ किया है. अगर वे राज्यों में निर्वाचित सरकारों को गिरा सकते हैं, तो गुजरात में कुछ कांग्रेस कार्यकर्ताओं को अपनी तरफ कर लेना कोई खास बात नहीं है. उन कार्यकर्ताओं को अब मुखबिर करार दिया जा रहा है और उन्हें कांग्रेस से बाहर निकालने की आवश्यकता निरुपित की जा रही है.
लेकिन अब समय आ गया है कि कांग्रेस भाजपा से भी सबक सीखे. जब मोदी राज्यों का दौरा करते हैं और उनके पास समय होता है, तो वे स्थानीय पार्टी कार्यकर्ताओं-सांसदों, विधायकों से अगर एक-एक करके नहीं तो समूहों में तो मिलते ही हैं. मोदी एक व्यस्त व्यक्ति हैं, लेकिन फिर भी अपने पार्टी कार्यकर्ताओं और राज्य नेताओं की बात सुनने के लिए समय निकाल ही लेते हैं.
भाजपा ने पार्टी कार्यकर्ताओं को हर समय व्यस्त रखने के लिए एक प्रणाली भी विकसित की है. भाजपा कार्यकर्ताओं के लिए राजनीति एक पूर्णकालिक नौकरी जैसी बन गई है. उनमें से कुछ को वेतन मिलता है, अन्य टिकट या पद की उम्मीद में या हिंदू हित के लिए प्रेम के कारण लगातार पार्टी के काम में जुटे रहते हैं.
जब तक गांधी परिवार- राहुल और प्रियंका- कांग्रेस को पुनर्जीवित करने के लिए पूरी तरह से नई रणनीति के बारे में नहीं सोचते, तब तक भविष्य अंधकारमय ही दिखाई देता है. लोकतंत्र में विपक्ष के लिए जो जगह है, कांग्रेस को इसे राष्ट्र के प्रति अपने प्रमुख कर्तव्य के रूप में व्यापना ही होगा. क्या राहुल चुनौती को पूरा कर सकेंगे?