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अश्वनी कुमार का ब्लॉग: लोकतांत्रिक राजनीति के सामने चुनौतियां 

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: December 7, 2018 16:23 IST

लोकतंत्र के प्रमुख संस्थानों के कमजोर प्रदर्शन और बढ़ती सामाजिक असमानता हमारी लोकतांत्रिक राज्यव्यवस्था में तनाव पैदा कर रही है और इसकी कमजोरियों  को और बढ़ा रही है।  

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जब देश के एक पूर्व राष्ट्रपति शासन को लेकर ‘फैलते निराशावाद और मोहभंग’ का अनुमोदन करते हैं और इस बारे में संसद में बहस की वकालत करते हुए कहते हैं कि न्याय प्रदान करने वाली न्यायपालिका और नेतृत्व को देश के प्रति प्रतिबद्ध होना चाहिए (24 नवंबर को प्रणब मुखर्जी का वक्तव्य) तो हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि भारत अवनति की ओर है। लोकतंत्र के प्रमुख संस्थानों के कमजोर प्रदर्शन और बढ़ती सामाजिक असमानता हमारी लोकतांत्रिक राज्यव्यवस्था में तनाव पैदा कर रही है और इसकी कमजोरियों  को और बढ़ा रही है।  

जो जीडीपी के आंकड़ों और ईज ऑफ डूइंग बिजनेस इंडेक्स को सुधार का  पैमाना मानकर खुश रहते हैं, उन्हें इस पर भी अपनी नजरें डालनी चाहिए कि विश्व खुशहाली सूचकांक (2018) में हमारे देश का स्थान 158 देशों में 113वां है, वैश्विक भूख सूचकांक में 119 देशों में हम 103वें स्थान पर हैं और वैश्विक शांति सूचकांक में वर्ष 2015 में हम 143वें स्थान पर लुढ़क गए, जबकि वर्ष 2008 में इस सूची में हमारा स्थान 123वां था। इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट की वर्ष 2016 की रिपोर्ट के अनुसार पत्रकारों के लिए सबसे खतरनाक देशों की सूची में भारत का स्थान आठवां है। देश एक अभूतपूर्व पर्यावरणीय चुनौती का सामना कर रहा है, जो विकास के लाभ पर पानी फेर सकती है। 

हमारे ऊपर सबसे प्रदूषित राजधानी का अपमानजनक ठप्पा लगा है और दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित 20 शहरों में से 13 हमारे देश के हैं। देश में वायु प्रदूषण की वजह से फरवरी 2017 में तीन हजार लोगों की असामयिक मौत होने की बात सामने आई। दुनिया में हमारा देश रेप कैपिटल के रूप में कुख्यात हो चुका है और 2017 से 2018 के बीच 1674 मौतें हिरासत में दी जाने वाली यातना की वजह से हो चुकी हैं, अर्थात हिरासत में प्रतिदिन पांच मौतें (एसीएचआर रिपोर्ट, 2018), जो हमें शर्मिदगी से भर देती हैं। हमारी राजनीतिक प्रक्रियाओं की शुद्धता और  लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व की गुणवत्ता का हाल यह है कि लगभग 30 प्रतिशत जनप्रतिनिधि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले हैं। देश के पुनर्निर्माण के लिए, एक अटूट प्रतिबद्धता की जरूरत है तभी हम बेनामी धन और राजनीति के बीच के अपवित्र गठजोड़ को खत्म कर अपने लोकतंत्र को जीवंत बना सकते हैं। 

राष्ट्रवाद और सामाजिक व्यवस्था

राजनीतिक वर्ग के बारे में लोगों में व्यापक निराशावाद फैला हुआ है, जिसने उसकी विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचाया है और हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को कमजोर किया है। एक संसदीय लोकतंत्र में राज्य व्यवस्था ने जनअपेक्षाओं को बहुत ही कम पूरा किया है। संवेदनहीनता और चरम गरीबी के प्रति उदासीनता ने ‘मानवीय संवेदना के चक्र’ को संकुचित किया है, जो बढ़ती आर्थिक शक्ति के रूप में हमारी स्थिति का मखौल उड़ाता है। हमारी राजनीति एक अंतहीन दुर्बल संभाषण की कैद में है, जिसकी जड़ें व्यक्तिगत कटुता में निहित हैं और प्राय: रोज ही होने वाले चुभते हुए शब्दाडंबरपूर्ण हमले इसके दिवालियेपन को दर्शाते हैं। जिन पीड़ादायक वास्तविकताओं से देश गुजर रहा है, उन्हें देखते हुए क्या हम वास्तव में यह कह सकने की स्थिति में हैं कि अपनी और दुनिया की नजरों में भी, हम भारत के महान पुत्र की सबसे ऊंची मूर्ति वाला देश होने के गौरव के अनुरूप हैं? राजनीतिक तुच्छता के चलते देश की क्षमताओं को सीमित किया जा रहा है, जबकि तुलना में वे चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं जिनका हमें सामना करना पड़ रहा है। प्रकट रूप से दिखाई देने वाली असमानता से ग्रस्त विभाजित समाज बिना व्यापक राजनीतिक सर्वसम्मति के चुनौतीपूर्ण समस्याओं का समाधान नहीं कर सकता है। इन समस्याओं में पारिस्थितिक गिरावट, तकनीकी व्यवधान, अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद, जल युद्ध, खाद्य पदार्थो की कमी, मानव तस्करी, आजादी पर हमला और लोकतंत्र को कट्टर राष्ट्रवाद के रूप में बदलने का खतरा शामिल है।

इस चुनौतीपूर्ण समय में, राष्ट्रवाद के प्रति प्रतिबद्धता और सामाजिक व्यवस्था के लिए आकांक्षा, हमारे आधारभूत मूल्यों की रक्षा के लिए अन्याय और अपराध के खिलाफ सीधे मुठभेड़ की मांग करती है। यह देखते हुए कि हाल के वर्षो में हमारे संवैधानिक विवेक को बार-बार हमले का सामना करना पड़ रहा है, देश को अपने सामाजिक सामंजस्य और राष्ट्रीय एकता पर आधारित समावेशकता, सहिष्णुता, बहुलता, समानता और सौम्य देशभक्ति को पुन: प्राप्त करने के लिए जोर देना चाहिए। जिन विकल्पों को हम अभी और 2019 में चुनेंगे, वही भविष्य को परिभाषित करेंगे और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में हमारे विकास को निर्धारित करेंगे। 

टॅग्स :सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी)प्रणब मुख़र्जीनरेंद्र मोदीकांग्रेस
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