आज 14 नवंबर को बाल दिवस है, जो देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू की जयंती के उपलक्ष्य में मनाया जाता है. भारतीय समाज में प्राचीन काल से बच्चों की निराली छवि संजोई जाती रही है. बाल गोपाल की नटखट लीलाओं का आकर्षण अब भी है. वैसे भी बच्चों की उपस्थिति, उनके हाव-भाव, किलकारी, खेल-कूद में भावनाओं की जिस ऊष्मा से भर देने वाले होते हैं वह अलौकिक यानी ईश्वरीय ही होती है. निश्छल, स्वाभाविक और सहज बच्चे मन के सच्चे होते हैं. लेकिन आज के कठिन समय में मध्य और उच्च-मध्य वर्ग के परिवारों में विशेष रूप से बच्चों का पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा को अच्छी तरह से अंजाम देना चुनौती भरा होता जा रहा है. देश के स्तर पर समस्याएं विराट हैं. आज विश्व की कुल जनसंख्या का छठा भाग भारत में रहता है.
इसमें बच्चे अर्थात् 18 साल तक की आयु वाले लगभग 39 प्रतिशत हैं. देश में निस्संदेह आर्थिक प्रगति दर्ज हुई है पर उसके अनुपात में जीवन की गुणवत्ता सबके लिए, खास तौर पर बच्चों और स्त्रियों के लिए उतनी नहीं बढ़ी है जितनी अपेक्षित है. वस्तुत: भारत वर्ष में बच्चों की स्थिति गंभीर विचार का विषय हो कर भी प्राय: हाशिये पर ही रहती रही है, हालांकि कुछ मामलों में प्रगति दर्ज हुई है.
उदाहरण के लिए शिशु मृत्यु दर और स्कूल छोड़ने की दर घटी है. परंतु बाल विवाह, कुपोषण और गरीबी से अभी भी छुटकारा नहीं मिल सका है. गौरतलब है कि आज भी एक हजार बच्चों में से 95 बच्चे अपना पांचवां जन्म दिवस मनाने के पहले ही काल कवलित हो जाते हैं. आज भी 4 वर्ष से 14 वर्ष आयु वर्ग के स्कूल जाने वाले बच्चों का एक बड़ा हिस्सा, आधे से कुछ कम, प्राइमरी शिक्षा पूरी नहीं कर पाता.
भारत के आधे बच्चे आज भी कुपोषण का शिकार हो रहे हैं. एक अध्ययन के हिसाब से हर दो लड़कियों में एक कुपोषित मिलती है. तीन महीने तक की आयु के बच्चों में 74 प्रतिशत न्यून या अल्प पोषण पाते हैं. देश में बच्चों की सुरक्षा और उनके पालन-पोषण पर जोर देने वाली कई सरकारी नीतियां बनी हैं. इस सिलसिले में सरकार का ‘मिशन वात्सल्य’ बच्चों के स्वास्थ्य और बाल-कल्याण के लिए समर्पित है.
कुछ संकेत सकारात्मक बदलाव बताते हैं पर स्वास्थ्य, शिक्षा और खुशहाली के प्रश्न अभी भी बरकरार हैं. गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और स्वास्थ्य की जरूरतें अभी भी संतोषजनक ढंग से पूरी नहीं हो पा रही हैं. इसी तरह बाल-विवाह को रोकना आवश्यक है. पिछले दो दशकों में देश में निश्चित रूप से उल्लेखनीय प्रगति हुई है. अति गरीबी 21 प्रतिशत कम हुई है.
इसी तरह अब 80 प्रतिशत बच्चों का जन्म स्वास्थ्य सुविधा केंद्रों पर होता है. फिर भी ग्रामीण क्षेत्र, मलिन बस्ती, अनुसूचित जाति तथा जनजातियों की स्थिति चिंतनीय बनी हुई है. संविधान के 86 वें संशोधन में 6 से 14 वर्ष तक की आयु के बच्चों के लिए निःशुल्क शिक्षा का प्रावधान किया गया है.
बच्चों को जरूरत को ध्यान में रख कर नई शिक्षा नीति-2020 में भी कई प्रावधान किए गए हैं जो बच्चों की रुचि, प्रतिभा, मातृ भाषा और संस्कृति के आलोक में उनके समग्र विकास का लक्ष्य पाने के लिए अवसर पैदा कर रहे हैं. बच्चों के विकास के लिए कई गैरसरकारी प्रयास भी शुरू हुए हैं जो बच्चों के लिए प्रावधान, उनकी सुरक्षा और प्रतिभागिता सुनिश्चित करने की दृष्टि से काम कर रहे हैं.
आम तौर पर भारतीय समाज में बच्चों के प्रति प्रेम के भाव प्रबल होते हैं. बच्चों से मिलना, उनसे बात करना और उनका कोमल स्पर्श प्रीतिकर होता है पर बदलती परिस्थितियों के दबाव के बीच बच्चों पर सकारात्मक रूप से ध्यान देना और उनकी अवस्था के अनुरूप अवसर उपलब्ध कराना परिवार, समुदाय और स्कूल जैसी संस्थाओं को पुनर्विचार के लिए आमंत्रित करता है.