केंद्र-राज्य टकराव से बचना ही लोकतंत्र के हित में, विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग
By विश्वनाथ सचदेव | Updated: June 2, 2021 13:27 IST2021-06-02T13:25:49+5:302021-06-02T13:27:11+5:30
केंद्र और राज्यों में टकराव की स्थितियां भी पैदा हुईं. संतुलन बनाए रखना आसान नहीं था पर कुल मिलाकर स्थितियां संभली रहीं. फिर वह दौर भी आया जब केंद्र में गैरकांग्रेसी सरकार बनी.

केंद्र में सत्तारूढ़ दल भाजपा की स्थिति लगभग वैसी ही है जैसी नेहरू के जमाने में कांग्रेस की थी.
हमारा भारत एक संघीय व्यवस्था वाला देश है. विभिन्न राज्यों का महासंघ. यहां राज्यों और केंद्र के अधिकार तथा कर्तव्य संविधान में स्पष्ट रूप से परिभाषित हैं.
ऐसा नहीं है कि पिछले 70 सालों में विभिन्न राज्यों और केंद्र के बीच कभी टकराव हुआ ही नहीं. हैं ऐसे उदाहरण, पर कुल मिलाकर ऐसी स्थिति को संभाल लिया गया है. कभी केंद्र ने अपना हक छोड़ा है और कभी राज्यों ने बात को बिगड़ने से बचाया है. हमारा संविधान इस बारे में स्पष्ट निर्देश देता है, और परंपरा भी यही रही है कि केंद्र व राज्य पारस्परिक सहयोग की भावना के साथ एक संघीय व्यवस्था में काम करें.
देश के कई राज्यों में गैरकांग्रेसी दलों की मिली-जुली सरकार बनी
आजादी प्राप्त करने के कई साल बाद तक यह व्यवस्था सुचारू रूप से चलती रही थी. इसका एक प्रमुख कारण यह भी था कि केंद्र और राज्यों में एक ही राजनीतिक दल कांग्रेस की सरकार थी. इसलिए, यदि विवाद होते भी थे तो आसानी से सुलझ जाते थे. इसका एक कारण यह भी था कि तब देश में जवाहरलाल नेहरू जैसे कद्दावर नेता थे, जिनकी बात अपने दल के लोग तो मानते ही थे, विपक्ष भी उन्हें समुचित सम्मान देता था. फिर, देश के कई राज्यों में गैरकांग्रेसी दलों की मिली-जुली सरकार बनी.
जाहिर है केंद्र और राज्यों में टकराव की स्थितियां भी पैदा हुईं. संतुलन बनाए रखना आसान नहीं था पर कुल मिलाकर स्थितियां संभली रहीं. फिर वह दौर भी आया जब केंद्र में गैरकांग्रेसी सरकार बनी, और अब तो स्थिति यह है कि केंद्र की सरकार इतनी मजबूत है कि वह चाहे तो मनमाने ढंग से शासन चला सकती है.
केंद्र को उचित सम्मान देते हुए अपने कर्तव्यों का वहन करें
इतने बड़े बहुमत के साथ सत्ता में आना किसी भी दल को अपने अति ताकतवर होने का एहसास करा ही देता है. स्वाभाविक है यह, पर हमारी संघीय व्यवस्था में उचित यही है कि केंद्र संतुलन बनाए रखने के अपने दायित्व का पालन करने में कोताही न बरते. संघ के सदस्य राज्यों से भी ऐसी ही अपेक्षा की जाती है कि वे केंद्र को उचित सम्मान देते हुए अपने कर्तव्यों का वहन करें.
यहां इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि आज देश में जो भी राजनीतिक स्थितियां पैदा हो रही हैं उनमें अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग राजनीतिक दलों की सरकारें बनना स्वाभाविक है. संयोग से आज केंद्र में सत्तारूढ़ दल भाजपा की स्थिति लगभग वैसी ही है जैसी नेहरू के जमाने में कांग्रेस की थी. तब अधिकतर राज्यों में भी कांग्रेस पार्टी की ही सरकार थी.
आज देश के कई राज्यों में भाजपा की या भाजपा के नेतृत्व वाली सरकारें हैं. पर, जैसा कि दिख रहा है, यह स्थिति बदल रही है. भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को इस बदलाव को स्वीकारना समझना होगा. प्रधानमंत्नी मोदी इस बात को समझते हैं इसीलिए वह सहकारी संघवाद की बात अक्सर दोहराते रहते हैं. पर बात दोहराने से ही नहीं बनेगी, इसे प्रयोग में भी लाना होगा.
एक-दूसरे के पक्ष को समझने की ईमानदार कोशिश इस प्रक्रिया की महत्वपूर्ण शर्त
इस प्रक्रिया में दोनों पक्षों, यानी केंद्र और राज्यों, को अपनी सीमाओं को समझना होगा. अपने अधिकारों की नहीं, अपने कर्तव्यों की बात करनी होगी. यह प्रक्रि या अपने-अपने अहम को विगलित करने से शुरू होती है. एक-दूसरे के पक्ष को समझने की ईमानदार कोशिश इस प्रक्रिया की महत्वपूर्ण शर्त है.
यह बात यदि देश के प्रधानमंत्नी और प. बंगाल की मुख्यमंत्नी समझ लेते तो देश एक अप्रिय विवाद में उलझने से बच सकता था. यह सही है कि राज्य में हुए हाल के चुनाव प्रचार में राजनीति का एक घटिया स्वरूप देश ने देखा. पर उम्मीद की गई थी कि अब जबकि ममता बनर्जी भारी बहुमत के साथ निर्वाचित हो गई हैं, राजनीतिक कटुता को कम करने की कोशिश होगी. पर ऐसा होता दिख नहीं रहा.
मुख्यमंत्नी ममता बनर्जी को ठीक नहीं लगा
प. बंगाल में आए तूफान से हुई क्षति का आकलन करने के लिए प्रधानमंत्नी द्वारा बुलाई गई बैठक में राज्य के मुख्यमंत्नी का शामिल न होना सही नहीं कहा जा सकता. अपनी इस कार्रवाई के पक्ष में वे तर्क दे रही हैं, पर बात समझ में नहीं आती. बैठक में सदन में विपक्ष के नेता व राज्यपाल को बुलाया जाना मुख्यमंत्नी ममता बनर्जी को ठीक नहीं लगा.
वे अपना विरोध प्रकट करके भी बैठक में भाग ले सकती थीं. यही उचित होता. पर अनुचित वह भी है जो इस संदर्भ में केंद्र सरकार ने किया. बैठक की खाली कुर्सियां दिखाकर मुख्यमंत्नी को नीचा दिखाने की कोशिश ही की गई है. ममता बनर्जी यदि कहती हैं कि बैठक में प्रधानमंत्नी से उनकी भेंट का चित्न भी दिखाया जा सकता था, तो गलत नहीं है.
केंद्र सरकार की गरिमा के अनुकूल नहीं लगती
गलत वह भी है जो उस समूचे प्रकरण में राज्य के तत्कालीन मुख्य सचिव अलापन बंदोपाध्याय के संदर्भ में हुआ. उन पर अनुशासनहीनता का आरोप लगाकर प. बंगाल की मुख्यमंत्नी पर निशाना साधने की यह कोशिश केंद्र सरकार की गरिमा के अनुकूल नहीं लगती.
संघीय व्यवस्था की गरिमा का भी तकाजा है कि संबंधित राजनीतिक दल और उनसे जुड़े शीर्ष नेता राजनीतिक हानि-लाभ के गणित से ऊपर उठकर विवेकशील राजनीति का परिचय दें. एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी की आड़ लेकर लड़ी जा रही केंद्र और राज्य की यह लड़ाई एक ओछी राजनीति का चेहरा ही दिखाती है. राजनीति का उद्देश्य राज्य की जनता का हित होना चाहिए. सत्ता के लिए राजनीति हो चुकी, अब सेवा के लिए राजनीति होनी चाहिए.