विज्ञान में जन-भागीदारी बढ़ाने की मुहिम
By गिरीश्वर मिश्र | Updated: July 24, 2025 07:22 IST2025-07-24T07:20:58+5:302025-07-24T07:22:02+5:30
यूरोपियन कमीशन, अमेरिकी सरकार और संयुक्त राष्ट्र जैसी वैश्विक संस्थाओं और व्यवस्थाओं द्वारा जन-विज्ञान की पहल को अब विशेष रूप से प्रोत्साहन दिया जा रहा है.

विज्ञान में जन-भागीदारी बढ़ाने की मुहिम
विज्ञान को आधुनिक युग में तेजी से धर्म का दर्जा दिया जा रहा है. लोगों में सब कुछ को वैज्ञानिक घोषित करने की ललक बढ़ती जा रही है. ऐसा हो भी क्यों न, विज्ञान विश्वसनीय, पूर्वाग्रहमुक्त और पक्षपातहीन अंतिम सत्य का पर्यायवाची जो हो गया है. हालांकि सदैव ऐसा नहीं होता और स्वयं विज्ञान के अर्थ भी बदल रहे हैं. तब भी ‘आंखिन देखी’ पर विश्वास करने वाली विज्ञान की विधि ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक भरोसेमंद आधार के रूप में सुबुद्ध लोगों की पहली पसंद है. टोना-टोटका, झाड़-फूंक, तंत्र-मंत्र, ओझा आदि को लेकर लोग हिचकने लगे हैं.
आम तौर पर विज्ञान की बढ़ती साख का ही नतीजा है कि विज्ञान के प्रचार-प्रसार के लगातार प्रयास हो रहे हैं ताकि आम जनों में वैज्ञानिक मानसिकता (साइंटिफिक टेम्पर) का विकास हो सके. भारत में होशंगाबाद में और केरल में समाज को विज्ञान से जोड़ने की पहल शुरू हुई थी जिसका व्यापक स्तर पर प्रचार-प्रसार न हो सका.
यहां एक जुड़ा सवाल वैज्ञानिक साक्षरता का भी है क्योंकि विज्ञान के प्रति भावनात्मक रुझान ही काफी नहीं हो सकता, उसकी मूलभूत जानकारी भी आवश्यक है. चूंकि विज्ञान का क्षितिज निरंतर विस्तृत हो रहा है इसलिए वैज्ञानिक साक्षरता का स्तर भी बढ़ता रहता है और उसे नए ज्ञान के आलोक में बार-बार परिभाषित और पुर्नपरिभाषित किए जाने की जरूरत पड़ती है.
इधर कुछ समय से अंतरराष्ट्रीय जगत में ज्ञान के प्रजातंत्रीकरण को लेकर गंभीरता के कुछ संकेत दिख रहे हैं. इस सिलसिले में शुरू ‘जन-विज्ञान’ (सिटिजन साइंस) नाम की पहल उल्लेखनीय है. यह पहल गैरव्यवसायी वैज्ञानिकों या नागरिकों द्वारा वैज्ञानिक शोध में सक्रिय भागीदारी की परिघटना को व्यक्त करती है. इसे सक्रिय प्रतिभागी अनुसंधान (ऐक्शन रिसर्च) का ही एक रूप कहा जा सकता है.
इसमें विभिन्न मात्रा में शोध कार्य करने के दौरान उसके विभिन्न चरणों में जन-भागीदारी को अवसर दिया जाता है. यह भागीदारी अप्रत्यक्ष और निष्क्रिय सहयोग से आरम्भ होकर शोध में प्रत्यक्ष सहयोग-सहकार की सीमा तक जा सकती है. यूरोपियन कमीशन, अमेरिकी सरकार और संयुक्त राष्ट्र जैसी वैश्विक संस्थाओं और व्यवस्थाओं द्वारा जन-विज्ञान की पहल को अब विशेष रूप से प्रोत्साहन दिया जा रहा है.
नए और विशिष्ट अनुभव नए अवसर प्रदान करते हैं. जनता की आवश्यकता और सरोकार को ध्यान में रख कर अच्छा कार्य संभव है. भागीदारी का विस्तार होने से समाज में वैज्ञानिक साक्षरता भी बढ़ेगी. साथ ही परंपरागत विज्ञान के साथ आधुनिक ज्ञान-विज्ञान का पारस्परिक संबंध भी जांचा-परखा जाएगा. शोधकर्ता और प्रतिभागी दोनों भूमिकाओं में कार्य एक आकर्षक प्रस्ताव है यद्यपि इससे नैतिकता के कुछ नए प्रश्न भी खड़े होंगे.
स्मरणीय है कि समाज की प्रगति में उद्यमियों (इंटरप्रेन्योर) की खास भूमिका होती है. ये वे लोग हैं जो समय की नब्ज महसूस करते हैं और अवसर निकाल कर या पैदा कर आर्थिक दुनिया में सकारात्मक हलचल पैदा करते हैं. इसका व्यापक असर होता है. शोध में भी इसी तरह के नवाचार की आवश्यकता है. जन-विज्ञान को प्रोत्साहित करना ऐसा ही नवाचार है जिसका समय आ चुका है.