ब्लॉग: महिलाएं फिर पिछड़ गईं उचित प्रतिनिधित्व पाने से

By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Published: December 5, 2023 01:37 PM2023-12-05T13:37:34+5:302023-12-05T13:38:46+5:30

संसद में महिला आरक्षण विधेयक चुनाव के पहले ही मंजूर हो चुका था। भले ही उस पर वास्तविक रूप से अमल होने में एक दशक लगने वाला हो लेकिन महिलाओं को एक तिहाई टिकट देकर राजनीतिक पार्टियां आरक्षण के प्रति अपनी ईमानदारी तो साबित कर ही सकती थीं।

Blog Women Reservation Bill Women again lagged behind in getting proper representation Women Reservation Bill | ब्लॉग: महिलाएं फिर पिछड़ गईं उचित प्रतिनिधित्व पाने से

(फाइल फोटो)

Highlightsताजा चुनाव में छत्तीसगढ़ में 2018 के मुकाबले 6 महिला विधायक ज्यादा चुनी गई हैंतेलंगाना में आठ प्रतिशत अर्थात 10 महिलाओं को विधानसभा में जाने का अवसर मिला हैम.प्र. में लगभग 11 प्रतिशत अर्थात 27 महिलाओं को इस चुनाव में विधायक बनने का अवसर मिला है।

नई दिल्ली: महिला आरक्षण की जोर-शोर से वकालत करनेवाले तमाम राजनीतिक दलों की कथनी और करनी में काफी अंतर है। मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ तथा तेलंगाना विधानसभाओं के चुनाव परिणाम सामने आ जाने के बाद इस तथ्य की पुष्टि हो जाती है। चुनाव की घोषणा के बाद राजनीतिक दलों ने महिलाओं को पर्याप्त संख्या में टिकट नहीं दिया जिसका नतीजा यह हुआ कि बहुत कम संख्या में महिलाओं को इन चारों विधानसभाओं में प्रतिनिधित्व मिला।

संसद में महिला आरक्षण विधेयक चुनाव के पहले ही मंजूर हो चुका था। भले ही उस पर वास्तविक रूप से अमल होने में एक दशक लगने वाला हो लेकिन महिलाओं को एक तिहाई टिकट देकर राजनीतिक पार्टियां आरक्षण के प्रति अपनी ईमानदारी तो साबित कर ही सकती थीं। चारों चुनावी राज्यों में नवनिर्वाचित महिला विधायकों की संख्या एक तिहाई से भी कम है। छत्तीसगढ़, तेलंगाना तथा म.प्र. विधानसभा में अब महिलाओं का प्रतिनिधित्व मामूली रूप से बढ़ा है लेकिन वह एक तिहाई की संख्या से कोसों दूर है। राजस्थान में इस बार पिछली विधानसभा से कम महिला विधायक रहेंगी।

ताजा चुनाव में छत्तीसगढ़ में 2018 के मुकाबले 6 महिला विधायक ज्यादा चुनी गई हैं। अब उनकी संख्या 13 से बढ़कर 19 हो गई है। यह 90 सदस्यीय सदन का 21 प्रतिशत होता है। तेलंगाना में आठ प्रतिशत अर्थात 10 महिलाओं को विधानसभा में जाने का अवसर मिला है। राजस्थान विधासभा में 2018 में 24 महिला विधायक थीं। इस बार उनकी तादाद घटकर 10 प्रतिशत अर्थात 20 रह गई है। म.प्र. में लगभग 11 प्रतिशत अर्थात 27 महिलाओं को इस चुनाव में विधायक बनने का अवसर मिला है। स्थानीय निकायों में तो महिलाओं के लिए आरक्षण पहले ही लागू हो चुका है और यह व्यवस्था सफलतापूर्वक काम कर रही है।

ग्रामपंचायतों, नगर पंचायतों, नगर परिषदों, जिला परिषदों तथा महानगरपालिकाओं में आरक्षण के कारण प्रतिभा की धनी महिलाएं राजनीति में सामने आ रही हैं और प्रशासनिक क्षमता का लोहा मनवा रही हैं। राज्य विधानसभाओं तथा लोकसभा में महिला आरक्षण के लिए दशकों से राजनीति चल रही है। संसद तथा विधान मंडल में महिला आरक्षण का समर्थन सभी पार्टियां करती रही हैं लेकिन महिला आरक्षण को जाति केंद्रित कर देने की शर्त लगाकर वे महिला आरक्षण विधेयक को कानून नहीं बनने दे रही थीं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने महिला आरक्षण को लेकर दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय दिया और संसद में विधेयक पारित भी करवा लिया लेकिन उसमें एक प्रावधान यह भी था कि नई जनगणना के बाद ही उसे लागू किया जाएगा। जनगणना 2021 में होनी थी मगर कोविड-19 महामारी के कारण उसे स्थगित करना पड़ा। अब तक जनगणना का नया समय निर्धारित नहीं किया गया है। इन सब प्रक्रियाओं में पांच से दस वर्ष तक का समय लग सकता है। इससे अनुमान लगाया जा रहा है कि संसद तथा विधान मंडलों में महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण 2029 या 2033 में लागू हो सकता है।

महिला आरक्षण के लिए देखा जाए तो दशकों तक राजनीति करने की जरूरत ही नहीं थी और न ही इसके लिए कानून बनाना अनिवार्य था। राजनीतिक दल पार्टी संविधान में ही महिलाओं को पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने का प्रावधान कर सकते थे। विधानमंडलों तथा संसद की बात तो दूर रही, राजनीतिक दलों के संगठनात्मक ढांचे में भी महिलाओं को पर्याप्त स्थान नहीं मिलता। आरक्षण देने के लिए कानून लागू करने का इंतजार क्यों करना चाहिए। पांच राज्यों में हाल के विधानसभा चुनाव में राजनीतिक दल एक तिहाई सीटों पर महिलाओं को टिकट दे देते तो महिलाओं को आरक्षण देने के प्रति उनकी ईमानदारी सामने आ जाती।

आजादी के बाद राज्यों में सुचेता कृपलानी, नंदिनी सत्पथी, जयललिता, मायावती, आनंदीबेन पटेल, ममता बनर्जी, वसुंधराराजे सिंधिया, राजिंदर कौर भट्टल, राबड़ी देवी, सुषमा स्वराज, शशिकला काकोड़कर, उमा भारती, मेहबूबा मुफ्ती, अनवरा तैमूर, शीला दीक्षित जैसे कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो मुख्यमंत्री पद पर पुरुषों का वर्चस्व रहा है। देश की आजादी के 76 वर्ष के इतिहास में इंदिरा गांधी के रूप में सिर्फ एक प्रधानमंत्री बनीं और महज दो राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल एवं द्रौपदी मुर्मु। यह प्रमाणित तथ्य है कि महिलाएं किसी भी मामले में पुरुषों से कम सक्षम नहीं हैं लेकिन पुरुष वर्चस्व की मानसिकता के कारण उन्हें आगे बढ़ने का पर्याप्त मौका नहीं मिलता। महिला आरक्षण का सपना तभी साकार होगा, जब राजनीतिक दलों की नीयत साफ होगी।

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