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ब्लॉग: चुनावों के दौरान कुछ जरूरी मुद्दों पर क्यों नहीं होती बहस ?

By विश्वनाथ सचदेव | Updated: December 8, 2023 11:08 IST

भारत में जिस तरह का चुनाव-प्रचार होता है या फिर मतदाता को रिझाने की जिस तरह से कोशिशें होती हैं, वह जनतांत्रिक मूल्यों की दृष्टि से कितनी सही हैं? चुनावों में न तो विपक्ष पूछता है और न ही सत्तारूढ़ बताना है कि वैश्विक गरीबी सूचकांक के अनुसार हमारी सोलह प्रतिशत आबादी के गरीब होने के कारण क्या हैं?

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ठळक मुद्देविधानसभा चुनाव का नतीजा देश के सामने है और राजनीति के पंडित अपने हिसाब से गणित कर रहे हैंकुछ इसे भाजपा की राजनीतिक सफलता बता रहे हैं, तो कुछ विपक्ष की गलत नीति का नतीजा बता रहे हैंभारत में इस बात पर भी विचार होना चाहिए कि हमारे यहां होने वाले चुनाव-प्रचार सही होता है

चुनाव के ‘सेमीफाइनल’ का नतीजा सामने है। राजनीति के पंडित हिसाब लगाने में लगे हैं। कुछ इसे भाजपा के राजनीतिक कौशल का परिणाम बता रहे हैं, कुछ विपक्ष की गलत रीति-नीति को दोषी ठहरा रहे हैं। विश्लेषण तो हर चुनाव परिणाम का होना चाहिए।

इस बात पर भी विचार होना चाहिए कि हमारे यहां जिस तरह का चुनाव-प्रचार होता है या फिर मतदाता को रिझाने की जिस तरह से कोशिशें होती हैं, वह जनतांत्रिक मूल्यों की दृष्टि से कितनी सही हैं? इन चुनावों के प्रचार के दौरान न विपक्ष यह पूछ रहा था और न ही सत्तारूढ़ पक्ष यह बताना जरूरी समझ रहा था कि वैश्विक गरीबी सूचकांक के अनुसार हमारी सोलह  प्रतिशत आबादी के गरीब होने के कारण क्या हैं?

इस बात को नहीं भूलाना चाहिए कि वैश्विक भूख सूचकांक की 123 देशों की सूची में भारत का स्थान 107 वां है। चुनाव-प्रचार के दौरान इसकी चर्चा कहीं सुनाई नहीं दी। गरीबी की तरह ही बेरोजगारी का मुद्दा भी कुल मिलाकर अनसुना ही रहा। विपक्ष के भाषणों में यह शब्द कभी-कभी सुनाई दे जाता था, पर इसे उस ताकत से नहीं उठाया गया जितनी ताकत से उठाया जाना चाहिए था।

चुनाव-परिणामों का विश्लेषण करने वालों का कहना है कि इस बार महिला-मतदाताओं की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही। महिलाओं ने मतदान में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया, यह सही है। चुनाव-परिणामों पर भी इसका असर पड़ा है पर विधायिका में महिलाओं को तीस प्रतिशत भागीदारी देने और उसका समर्थन करने वालों में से किसी भी राजनीतिक दल ने इन चुनावों में एक तिहाई उम्मीदवार खड़े करना जरूरी नहीं समझा।

देश में आईआईटी और आईआईएम खोले जाने की बातें भी हुईं, पर यह बात किसी ने भी नहीं उठाई कि देश में एक लाख से कहीं अधिक स्कूलों में सिर्फ एक अध्यापक क्यों है? यह सवाल हमारे राजनेताओं के जहन में क्यों नहीं आता कि हर साल एक लाख से अधिक भारतीय देश छोड़कर क्यों चले जाते हैं? प्राप्त आंकड़ों के अनुसार पिछले ही साल यानी 2022 में 25 हजार भारतीयों ने नागरिकता छोड़ी थी। आखिर क्यों?

यह सब वे नहीं हैं जिन्हें गलत काम करके देश से भागने दिया गया है। ऐसे लोग तो गिनती के हैं। सवाल तो उन लाखों का है जो देश की परिस्थितियों के कारण ‘बेहतर जिंदगी’ के लिए देश छोड़कर जाने के लिए बाध्य हो जाते हैं। यह और ऐसे मुद्दे हमारे चुनावों का हिस्सा क्यों नहीं बनते?

यह संभव है कि जो मुद्दे उठाए गए वे भी उठने लायक हों, पर जो नहीं उठाए गए वे तो इस बात का उत्तर मांग रहे हैं कि जाति, धर्म, भाषा आदि को वोट मांगने का आधार क्यों बनाया जाता है? यह सवाल मतदाताओं को अपने प्रतिनिधियों से पूछना होगा कि वे यह क्यों मान लेते हैं कि मतदाता उनकी मुट्ठी में है?

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