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ब्लॉग: चुनावी बांड पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला मतदाताओं की जीत है

By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Updated: February 23, 2024 12:21 IST

चुनावी बांड पर सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक 5-0 के फैसले से आम आदमी में एक बार फिर भरोसा जगा है कि हमारी आज की लोकतांत्रिक व्यवस्था मजबूत होगी।

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ठळक मुद्देचुनावी बांड पर सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक 5-0 के फैसले से आम आदमी में विश्वास जगा हैइस फैसले से लोगों के मन में भरोसा जगा है कि हमारी आज की लोकतांत्रिक व्यवस्था मजबूत होगी आम आदमी को भरोसा होगा कि उसके पास पांच साल में एक बार वोट देने का शक्तिशाली’ मौका है

चुनावी बांड पर सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक 5-0 के फैसले के पक्ष और विपक्ष में पिछले कुछ दिनों में बहुत कुछ लिखा गया है। आने वाले दिनों में विभिन्न दृष्टिकोणों से और भी काफी कुछ लिखा जाएगा, इसलिए कि यह एक बहुप्रतीक्षित फैसला है जिसने न केवल सभी राजनीतिक दलों को बल्कि आम आदमी को भी प्रभावित किया है।

आम आदमी हमारी आज की लोकतांत्रिक व्यवस्था में सबसे मजबूत, फिर भी शायद सबसे ‘कमजोर’ कड़ी है। उसके पास पांच साल में एक ही बार डालने के लिए एक ‘शक्तिशाली’ वोट है, लेकिन कई बार उसे लगता है कि उसके वोट का कोई मूल्य नहीं है और उस लोकतंत्र में उसकी कोई आवाज नहीं है, जहां पूरी तरह से दबंग राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों का वर्चस्व है।

कई लोगों ने फैसले को शक्तिशाली मोदी प्रशासन के खिलाफ सुनाए गए फैसले के रूप में देखा; दूसरों ने इसे भाजपा विरोधी बताने की कोशिश की। निजी बातचीत में लोगों ने न्यायाधीशों और मुख्य न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ की निष्पक्षता व मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था की समझ और निडरता के लिए सराहना भी की फिर भी, देश भर में और खास कर सोशल मीडिया पर कुछ लोग न्यायाधीशों को भाजपा विरोधी कहने की हद तक चले गए।

ऐसे समय में जब देश में शक्तिशाली संस्थाएं कमजोर हो रही हों और लाखों ‘भक्त’ इसके पीछे के कारणों को देखने से इनकार कर रहे हों, सर्वोच्च न्यायालय की ऐसी आलोचना (शायद) अपेक्षित है, लेकिन पूर्णतः अनुचित है। लोग यह भूल जाते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय तुच्छ विचारों, आलोचनाओं और पूर्वाग्रहों से ऊपर था, है और रहेगा।

शीर्ष अदालत को निष्पक्ष, स्वतंत्र, निर्भीक और जन-समर्थक रहना चाहिए। इस फैसले ने रेखांकित किया कि सर्वोच्च अदालत की नजर में जनता महत्वपूर्ण है, न कि नेता. यह फैसला उन राजनीतिक दलों पर मतदाताओं (जनता) की जीत है, जिन्हें मोटा चंदा मिला और मतदाता अंधेरे में रहे।

निःसंदेह, कुछ असामान्यताएं रही हैं, जिससे किसी न किसी कारण से न्यायपालिका की ख्याति धूमिल हुई है, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय को उसके सत्ता-विरोधी विचारों या फैसलों के आधार पर गंदी राजनीतिक बहस में घसीटना निंदनीय है। भाजपा के एक पदाधिकारी ने लिखा है कि ‘यह फैसला (हमें) एक हजार कदम पीछे ले जाता है और इसे चुनौती दी जानी चाहिए।’ जो बात उन्होंने नहीं बताई वह यह कि इस चंदे की सारी जानकारी केवल केंद्र सरकार को थी और अन्य किसी को नहीं।

भाजपा समर्थकों को यह भी याद रखना चाहिए कि इसी सर्वोच्च न्यायालय ने मोदी सरकार द्वारा अनुच्छेद 370 को हटाए जाने को सही ठहराया था। राम मंदिर मामले में वह एक बार फिर सरकार के साथ नजर आया था। यदि अदालतें - उच्च या सर्वोच्च - किसी सरकार या राजनेताओं के एक समूह या किसी विचारधारा के अनुरूप चलना शुरू कर दें, तो संविधान की मूल भावना ही खतरे में पड़ जाएगी। न्यायपालिका की स्वतंत्रता संविधान में निहित है, अगर यह कमजोर पड़ती है तो लोकतंत्र और कमजोर हो जाएगा और लोगों की आवाज स्थाई रूप से दबा दी जाएगी।

वैसे, हाल ही में जारी विश्व ‘लोकतंत्र सूचकांक’ में भारत की स्थिति अच्छी दिखाई नहीं दी है। आज हम एक ऐसे समाज में रह रहे हैं जहां राजनीतिक शक्तियां और एकतरफा विचारधाराएं लोगों के जीवन पर इस तरह हावी हो रही हैं, जैसा पहले कभी नहीं देखा गया। यह हर जगह बढ़ते संघर्षों का युग है, जहां मन की शांति खत्म हो रही है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता के इस कठिन दौर में संवैधानिक संस्थानों को ईमानदारी से और निडरता से खड़ा होना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने बस यही तो किया है।

सामान्य व्यक्ति के दृष्टिकोण से इस फैसले ने आम आदमी के सूचना के अधिकार को बरकरार रखा है। सूचना का अधिकार अधिनियम जब कमजोर पड़ रहा हो तब चंद्रचूड़ और उनके साथी न्यायाधीशों को धन्यवाद कि पारदर्शिता की आवश्यकता को रेखांकित करने वाले उनके ऐतिहासिक फैसले ने उसे प्राणवायु प्रदान की है जो बहुत जरूरी थी। याद रखें, भाजपा सरकार ने कर्नाटक चुनावों से ठीक पहले अपनी जरूरतों के अनुरूप लोकसभा चुनावों के लिए बने बांड संबंधी प्रावधान में बदलाव किया था।

यह ऐसा तथ्य है जो कई लोगों को पता नहीं है। आजादी के बाद से ही भारत में चुनावी चंदे को भानुमती का पिटारा माना जाता है क्योंकि स्थानीय पंचायत से लेकर संसद तक बिना किसी अपवाद के जन प्रतिनिधियों को चुनने में कालेधन ने हमेशा अहम किंतु स्याह भूमिका निभाई है। वर्ष 2017 में बैंकों के माध्यम से चंदे का कानून बनाना एक सराहनीय कदम था लेकिन दानदाताओं के नाम क्यों गुप्त रखे गए?

निर्वाचन आयोग और स्टेट बैंक द्वारा न्यायालय निर्देशित खुलासा करने के बाद लोगों को यह जानने में मदद मिलेगी कि क्या तृणमूल कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल में किसी कॉर्पोरेट समूह की मदद की है या भाजपा सरकार ने अपने को मिले बड़े चंदे के बदले में किसी खास समूह को उपकृत करने के लिए आर्थिक नीतियों में बदलाव किया है?

मतदान से पहले लोगों को राजनीतिक दलों के ‘लेन-देन’ के बारे में अच्छे से पता होना चाहिए। यह दूरगामी फैसला चुनाव के गलत तौर-तरीकों को साफ-सुथरा बनाने की प्रक्रिया को और गति प्रदान कर सकता है और कालेधन तथा साठगांठ वाले पूंजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज्म) को रोकने के लिए नए उपाय सुझा सकता है, ऐसी आशा अब जगती है।

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