ब्लॉगः नदियों को जोड़ने की योजना पर पुनर्विचार हो

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: October 6, 2023 02:07 PM2023-10-06T14:07:14+5:302023-10-06T14:20:46+5:30

भारत की छोटी-बड़ी नदियों की स्थिति पर एक सरसरी नजर डालने से पता चलता है कि नौकरशाहों, इंजीनियरों और राजनेताओं ने नदियों की सफाई, लगभग साल भर उनके प्रवाह को बनाए रखने, अतिक्रमण को रोकने के बारे में शायद ही कभी गंभीर चिंता की है।

Blog Plan to link rivers should be reconsidered | ब्लॉगः नदियों को जोड़ने की योजना पर पुनर्विचार हो

ब्लॉगः नदियों को जोड़ने की योजना पर पुनर्विचार हो

अभिलाष खांडेकर: हाल ही में मुंबई आईआईटी की एक रिपोर्ट से एक बार फिर हड़कंप मच गया है। नदियों को आपस में जोड़ने (आईएलआर) या एक नदी बेसिन से दूसरे नदी बेसिन में पानी के स्थानांतरण की विशाल परियोजना के इस रिपोर्ट के अनुसार गंभीर खतरे हैं।

जल संकट वाले इस देश में, नदियां हमारे सामाजिक-आर्थिक विकास का केंद्र बनी हुई हैं। दुनिया भर में, कुछ अपवादों को छोड़कर, नदियों को उनकी पर्यावरण-सेवाओं के लिए अच्छी तरह से संरक्षित किया जाता है, चाहे उन्हें ‘मां’ का दर्जा प्राप्त हो या नहीं। रघुवंशम में कालिदास ने कहा था ‘नदियां किसी देश के लिए मां के समान हैं और पहाड़ पिता के समान हैं।’ परिणामस्वरूप, हम भारतीय अक्सर उन्हें स्थानीय बोलियों में गंगा मइया या नर्मदा मइया के रूप में संबोधित करते हैं और उनकी पूजा करते हैं। दुनिया में अधिकांश शहर नदियों या समुद्र तटों पर बसे हैं, जो नदी के महत्व को रेखांकित करता है, चाहे वह पेरिस (सीन), मॉस्को (मॉस्कोवा), वाराणसी (गंगा), लंदन (थेम्स), काहिरा (नील) हो या नई दिल्ली (यमुना)।

भारत की छोटी-बड़ी नदियों की स्थिति पर एक सरसरी नजर डालने से पता चलता है कि नौकरशाहों, इंजीनियरों और राजनेताओं ने नदियों की सफाई, लगभग साल भर उनके प्रवाह को बनाए रखने, अतिक्रमण को रोकने के बारे में शायद ही कभी गंभीर चिंता की है। वे नदी पारिस्थितिकी के संरक्षण के लिए शायद ही कभी नदी विशेषज्ञों से परामर्श लेते हैं। गंगा एक्शन प्लान, राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन या विभिन्न भारतीय राज्यों में कुछ स्थानीय प्रयास दुर्लभ अपवाद हैं, साथ ही कुछ व्यक्ति भी। आज हम नदियों की जो दयनीय स्थिति देखते हैं, वह बढ़ते उपभोक्तावाद, प्लास्टिक के विवेकहीन उपयोग और बढ़ती आबादी का प्रत्यक्ष परिणाम है जिसमें नदियों की उपयोगिता व विरासत को समझने का समय किसी के पास नहीं है।

ऐसे परिदृश्य में आश्चर्य होता है कि क्या समुचित अध्ययन, वैज्ञानिक अनुसंधान और उनके परिणामों पर विचार किए बिना नदियों को जोड़ने से किल्लत वाले क्षेत्रों में पानी की कमी की समस्या हल हो जाएगी? इस महाकाय योजना पर गहन चिंतन-मनन कब और किसने किया?

अन्य टिप्पणियों के अलावा, आईआईटी की रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘विशाल नदी जोड़ो परियोजनाओं में जल-मौसम संबंधी परिणामों की गहन समझ के बिना जलाशयों और नहरों के माध्यम से अधिशेष से किल्लत वाले नदी बेसिनों में जल प्रवाह छोड़ने की बात कही जा रही है।’ इससे यह भी डर है कि यह (नदी जोड़ो परियोजना) भूमि-वायुमंडल प्रतिक्रिया और भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून को बदल कर रख देगी।

नदियों को जोड़ने की बेहद महंगी परियोजना ने 2002 में तब गति पकड़ी जब सुप्रीम कोर्ट ने भारत सरकार को अगले 10 वर्षों में इसको पूरा करने का निर्देश जारी किया। तब से यह महत्वाकांक्षी परियोजना पर्यावरणविदों और सरकारों के बीच चिंता और तीखी बहस का कारण बनी हुई है। ठेकेदारों, इंजीनियरों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा खुशी-खुशी समर्थित इस मेगा-प्रोजेक्ट के समर्थकों ने सभी डाटा, शोध निष्कर्ष, जल-स्तर, प्रभावित नदियों के प्रवाह, लागत-लाभ विश्लेषण आदि को हितधारकों और जनता के सामने रखने के लिए ईमानदार प्रयास कभी नहीं किए हैं। सरकार की योजनाओं में भविष्य के ऐसे भारत का सपना दिखाया गया है जहां कोई बाढ़ या सूखा नहीं होगा और सभी नदियों में पर्याप्त पानी होगा। कुछ लोगों को लगता है कि सभी नदी जोड़ो परियोजनाएं पूरी होने के बाद तमिलनाडु जैसे राज्य को पवित्र गंगा के मीठे पानी का स्वाद मिलेगा। लेकिन ये बड़ी गलतफहमियां हैं। 

बेशक, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और पूर्व केंद्रीय जल संसाधन मंत्री उमा भारती जैसे नेताओं ने दावा किया है कि केन और बेतवा के जुड़ जाने के बाद बुंदेलखंड सूखा क्षेत्र नहीं रहेगा। 2015 में म।प्र। वन्यजीव बोर्ड के विरोध के बावजूद, परियोजना को मंजूरी दे दी गई है। नदी जोड़ो परियोजना के समर्थकों का मानना है कि नदी घाटियों से महासागरों में जाने वाले अधिकांश पानी का उपयोग कृषि सहित पानी की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए किया जा सकता है, लेकिन उन्हें इसके दूरगामी दुष्परिणामों के बारे में पता ही नहीं है।

कुछ दशक पहले तक, यानी आजादी के बाद, नदियों के बारे में इतनी वैज्ञानिक जानकारियां उपलब्ध नहीं थीं। किंतु अब नदियों और उनके स्वास्थ्य पर कई विशेषज्ञों की राय, अच्छे शोध के बाद लिखी गई किताबें और बहसें होती देखी जा रही हैं जो देश के लिए अच्छा संकेत है। हालांकि नदियों को जोड़ने का मसला अभी सुलझा नहीं है: उनको जोड़ा जाए या नहीं, यह यक्ष प्रश्न आज भी अनुत्तरित ही है।

वर्ष 2014 में दिवंगत मनोज मिश्रा द्वारा स्थापित इंडिया रिवर फोरम (आईआरएफ) के संस्थापक सदस्य और शीर्ष नदी विशेषज्ञ मनु भटनागर का कहना है कि ब्रह्मपुत्र के अलावा किसी अन्य बेसिन, यहां तक कि गंगा में भी, अतिरिक्त पानी नहीं है। उनका मानना है कि वैज्ञानिक बेसिन प्रबंधन और सिंचाई दक्षता, अपशिष्ट जल के पुनर्चक्रण और जलभृत पुनर्भरण के माध्यम से अपने आंतरिक संसाधनों का ठीक उपयोग हो तो, पानी के हस्तांतरण की बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं होगी। भटनागर दृढ़ता से परियोजना के स्वतंत्र लागत-लाभ विश्लेषण पर जोर देते हैं जिसके लिए 8।44 लाख करोड़ रुपए की आवश्यकता हो सकती है - जो कि एक बहुत बड़ी राशि है।

नदी जोड़ो परियोजनाओं को लागू करने से पहले, भारत सरकार को लोकलुभावन उपायों के बजाय सभी पहलुओं पर गौर करना चाहिए, जिसके चलते कतिपय लोगों के समूह को आर्थिक लाभ होगा, लेकिन पर्यावरण को तो बहुत बड़ा नुकसान ही होगा। समय पर जागना जरूरी है।

Web Title: Blog Plan to link rivers should be reconsidered

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