कई स्थानों के सम्मान की वजहें उसके ऊपरी रूप में दिखाई देती हैं तो कई स्थानों का सम्मान उनकी जड़ों में छिपा रहता है। उज्जैन का कहना है - हमारा सम्मान इस कारण है क्योंकि कभी इस जमीन पर कालिदास रहा था।
इस कारण आज जो दो कविताएं जेब में रख यहां की सड़कों पर चलता है, वह अपने को कुछ-कुछ कालिदास मानता ही है, और प्रतीक्षा करता है, जनता और अखबारों की कि वे कब आकर उसे कालिदास स्वीकार कर लेंगे।
मंत्री के मुख और अखबार से यह स्वीकृति सस्ते में मिल सकती है, पर दुर्भाग्य यह होता है कि हर अखबारवाला इतना बदतमीज है कि प्रतिभा को स्वीकार नहीं करता। इस कारण राजा भरथरी की इस नगरी में कालिदास की परंपरा निभाना कुछ पुश्तैनी धंधा, कुटीर उद्योग की तरह हो गया है और हर तरह हो गया है और हर तीसरे घर में कोई कारीगर आपको मिल जाएगा।
अब प्रश्न यह है और बड़ा गंभीर प्रश्न है कि अज्ञेय ऐसी कविता क्यों नहीं लिख सकता तो उसका कारण है कि वह यह रचना पहले लिख चुका है। अज्ञेय ने आज से कई वर्ष पूर्व लिखा था, बम्बई से प्रकाशित होनेवाला नया साहित्य में वह कविता छपी थी और फिर संग्रह में भी निकली।
पर कहते हैं, इतिहास, फैशन और टेकनिक अपने को दुहराते हैं। अज्ञेय की ‘पानी बरसा’ उसी क्रम से दुहराकर कालिदास के वंशजों के एक सरस्वती कंठ से फूट निकला।
अब आपका और हमारा यह काम है कि हम इस रचना को मौलिक मानें और उन सबको जो अज्ञेय की रचना ‘आ पिया, पानी बरसा’ को ‘ओ मित्र, पानी बरसा’ लिखकर भेजते हैं, वे जो राजनारायण बिसारिया की रचना को अपने हिये के बोल बनाते हैं और जो थोड़ा नीरेंद्र, थोड़ा नीरज मिलाकर अपना साइन बोर्ड पेंट करते हैं।
शेक्सपियर ने किसी से चुराकर अपने नाम से रचनाएं प्रकाशित की थीं, ऐसा शक अब विदेश में फैल रहा है। उज्जैन में होनेवाले साहित्यिक उत्पादन का यही क्रम रहा तो निश्चित है, एक दिन कालिदास पर भी शक होने लग जाएगा कि उसने यह सब मौलिक लिखा है अथवा चुराया है।
प्रतिभा है तो क्या हुआ? अज्ञेय ने भी तो नरेंद्रकुमार द्वारा भविष्य में लिखी जानेवाली रचना को कई वर्षों पूर्व ही अपने नाम से छपा दिया।