कृपाशंकर चौबे का ब्लॉग: वामपंथ के अप्रासंगिक हो जाने का खतरा

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: May 26, 2019 07:56 IST2019-05-26T07:56:41+5:302019-05-26T07:56:41+5:30

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना 17 अक्तूबर 1920 को हुई थी. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) की सातवीं कांग्रेस कलकत्ता में 31 अक्तूबर से सात नवंबर 1964 में हुई थी और उसी भाकपा से निकलकर मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के गठन की घोषणा की गई थी.

Blog of Kripashankar Choubey: Threat of Left becoming irrelevant, Loksabha elections2019 BJP, nDA | कृपाशंकर चौबे का ब्लॉग: वामपंथ के अप्रासंगिक हो जाने का खतरा

कृपाशंकर चौबे का ब्लॉग: वामपंथ के अप्रासंगिक हो जाने का खतरा

स्वा धीनता के बाद वामपंथी दलों की इतनी शोचनीय स्थिति कभी नहीं हुई जितनी हाल ही में संपन्न लोकसभा चुनाव में हुई है. इस चुनाव में वाम मोर्चा एक समय के अपने मजबूत गढ़ पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में खाता तक नहीं खोल पाया. इस चुनाव में केरल में एक सीट पर और तमिलनाडु में चार सीटों पर वाम मोर्चे को जीत मिली है. पिछले संसदीय चुनाव में वाम मोर्चे को 12 सीटों पर विजय मिली थी किंतु इस चुनाव में वह संख्या घटकर पांच रह गई है.

बंगाल में तो वाम मोर्चे को इस संसदीय चुनाव में महज 7.47 प्रतिशत मत मिले, जबकि 2009 में उसे 43.30 प्रतिशत और 2014 में 29.93 प्रतिशत मत मिले थे. वे मत अब भाजपा की तरफ हस्तांतरित होते दिख रहे हैं. ‘वामेर भोट रामेर’ (वाम का वोट राम को) का नारा ही यहां चल निकला था. 2014 में भाजपा को 17.02 प्रतिशत मत मिले थे जो इस चुनाव में बढ़कर 40.23 प्रतिशत हो गया. आज बंगाल के 2.17 करोड़ मतदाता भाजपा के समर्थक हैं. यदि संसदीय चुनाव के नतीजों को विधानसभा के हिसाब से देखें तो बंगाल विधानसभा की 130 सीटों पर भाजपा को बढ़त मिली हुई है. 

कहने की जरूरत नहीं कि 2021 के विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी को भाजपा से कड़ी टक्कर मिलनेवाली है. ममता बनर्जी के लिए यह खतरे का संकेत है. इस नतीजे से उन्हें राजनीतिक सबक लेना होगा. लेकिन वाम मोर्चे के समक्ष तो अपनी प्रासंगिकता को बनाए रखने की ही कड़ी और बड़ी चुनौती सामने खड़ी है. वाम मोर्चे का पराभव विस्मयकारी है.

इस पराभव के एक नहीं, अनेक कारण हैं. वाम दल खासकर माकपा किसी चुनाव को युद्ध मानती रही है किंतु हाल ही में संपन्न लोकसभा चुनाव में वह इसे युद्ध के रूप में लड़ती नजर नहीं आई. माकपा की लोकल कमेटी से लेकर जोनल, जिला व राज्य कमेटियों द्वारा लोकसभा के चुनाव प्रचार के लिए जिस जज्बे को दिखाए जाने की जरूरत थी, वह नहीं दिखी. कदाचित इसीलिए वह शिखर से ढलान पर आ गिरी है.

बंगाल, केरल और त्रिपुरा की राजनीति में लंबे समय तक माकपा शिखर पर रही. आज बंगाल और त्रिपुरा की सत्ता से वह बाहर है. इन प्रदेशों में बड़े पार्टी कैडरों तक को माकपा संभाल नहीं पा रही है और वे बड़े पैमाने पर पार्टी छोड़ रहे हैं. रज्जाक मोल्ला से लेकर लक्ष्मण सेठ तक दूसरे दलों में चले गए हैं. लोकसभा के चुनाव नतीजों के बाद माकपा के बचे-खुचे कैडरों के मनोबल पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है. 


वैचारिक मतभेदों के कारण ही नृपेन चक्र वर्ती, सैफुद्दीन चौधरी से लेकर सोमनाथ चटर्जी जैसे कद्दावर नेताओं को माकपा से अतीत में बहिष्कृत किया गया था. ये तीनों नेता अब नहीं रहे किंतु माकपा ने कभी इस पर विचार नहीं किया कि इन नेताओं को पार्टी से बहिष्कृत किया जाना दल के लिए कितना हितकर रहा. वामपंथी दलों में सबसे बड़ी पार्टी मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) है.

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना 17 अक्तूबर 1920 को हुई थी. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) की सातवीं कांग्रेस कलकत्ता में 31 अक्तूबर से सात नवंबर 1964 में हुई थी और उसी भाकपा से निकलकर मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के गठन की घोषणा की गई थी. 1964 में कम्युनिस्ट पार्टी में संशोधनवाद पर जो बहस चली थी और उसमें जो गहरे सैद्धांतिक मतभेद उभरे थे, उसकी परिणति कम्युनिस्ट पार्टी के विभाजन के रूप में हुई थी. तब माकपा ने भाकपा को संशोधनवादी कहा था. माकपा के गठन की घोषणा करते हुए मुजफ्फर अहमद ने कलकत्ता कांग्रेस में कहा था, ‘आइए हम सच्ची कम्युनिस्ट पार्टी खड़ी करने की शपथ लें.’ पार्टी को इस पर मंथन करना चाहिए कि क्या उस शपथ पर माकपा खरी उतर सकी? 


माकपा नए लोगों को नेतृत्व का अवसर देकर पुन: खड़ा होने और जनता से जुड़ने की ईमानदार कोशिश कर सकती थी. नए चेहरे पार्टी की नई छवि का निर्माण कर सांगठनिक बदलावों की दिशा भी तय कर सकते थे. विडंबना यह है कि माकपा न सांगठनिक बदलाव के रास्ते चलने को तत्पर दिख रही है, न अपनी गलतियों को सुधारने के लिए वह तैयार है. जिन कारणों से त्रिपुरा व बंगाल तक उसके हाथ से निकल गए, उन पर उसने मंथन नहीं किया. 


आज माकपा में कट्टरपंथी समूह तथा उदारवादी गुट के बीच जो वैचारिक और सांगठनिक मतभेद हैं, उन्हें दूर कर एकजुटता नहीं दिखाई गई तो पार्टी और कमजोर होती जाएगी. कट्टरपंथी गुट को न वैचारिक रूढ़िवाद पर जोर देना चाहिए न उदारवादी गुट को संशोधनवाद पर. मुश्किल यह है कि इस समय कट्टरपंथियों की कमान प्रकाश करात ने उसी तरह से संभाल रखी है, जैसे कभी ईएमएस नम्बूदरीपाद ने संभाल रखी थी.

उदारवादी खेमा हरकिशन सिंह सुरजीत से होता हुआ ज्योति बसु और अच्युतानंदन - बुद्धदेव भट्टाचार्य से होते हुए सीताराम येचुरी तक पहुंचा है. येचुरी इस समय पार्टी महासचिव हैं. वे जब माकपा के भीतर मतभेद नहीं दूर कर पाएंगे तो वाम मोर्चे के मतभेद कैसे दूर कर सकेंगे? मतभेद जब तक दूर नहीं होंगे, वामपंथ कमजोर होता जाएगा और अपनी प्रासंगिकता भी तेजी से खोता जाएगा. 

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