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अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: आर्थिक सब्सिडी और चुनावी लाभ का गणित

By अभय कुमार दुबे | Updated: January 29, 2020 17:27 IST

चर्चा की नौबत इसलिए आई है कि आम आदमी पार्टी की सरकार ने बिजली, पानी और परिवहन के क्षेत्र में दिल्लीवासियों को अच्छी ख़ासी सब्सिडी दी है

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ठळक मुद्देऔसतन दिल्ली के नागरिक तीन से पांच हजार रुपए प्रति महीने कम खर्च कर रहे हैंइस तरह की सब्सिडियां देने का कुछ न कुछ लाभ नरेंद्र मोदी को 2019 के लोकसभा चुनाव में हो चुका है.

पहली नजर में लगता यह है कि मौजूदा हालात में आम लोगों की बचत कराने वाली हर सब्सिडी आर्थिक दृष्टि से उपयोगी  है. आम आदमी पार्टी का कहना है कि उसकी सरकार द्वारा पेश किया गया दिल्ली का आखिरी बजट पहले बजट के दोगुने से भी ज्यादा है. दरअसल, वे ‘सरप्लस’ की अर्थव्यवस्था चला रहे हैं, और उनके कार्यकाल में दिल्ली का कुल घरेलू उत्पाद देश के जीडीपी से कहीं ज्यादा हो गया है.

यूं तो दिल्ली को संपूर्ण राज्य का दर्जा भी हासिल नहीं है, लेकिन जब उसके विधानसभा चुनाव होते हैं तो उन्हें लड़ा इस तरह जाता है जैसे कि राजधानी में सरकार बनाना किसी बड़े राज्य से भी ज्यादा महवपूर्ण हो. इस बार भी ऐसा ही हो रहा है. जो बहसें चल रही हैं उनमें सर्वाधिक अहम और मानीख़ेज बहस राज्य की भूमिका और नागरिकों को दी जाने वाली आर्थिक रियायतों के इर्दगिर्द हो रही है. इस चर्चा की नौबत इसलिए आई है कि आम आदमी पार्टी की सरकार ने बिजली, पानी और परिवहन के क्षेत्र में दिल्लीवासियों को अच्छी ख़ासी सब्सिडी दी है. इससे लोगों का हर महीने होने वाला खर्चा घटा है, और उनके जेब में कुछ पैसे बचने शुरू हो गए हैं.

औसतन दिल्ली के नागरिक तीन से पांच हजार रुपए प्रति महीने कम खर्च कर रहे हैं. पिछले पांच साल से लगातार मिलने वाली इस तरह की रियायत के कारण लोगों का रुझान इस सरकार के प्रति सकारात्मक हो गया है, और अगर इसे स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में हुई उपलब्धियों से जोड़ दिया जाए तो इसका नतीजा अरविंद केजरीवाल के खिलाफ ‘एंटी-इनकम्बेंसी’ के बजाय ‘प्रो-इनकम्बेंसी’ में निकल सकता है.

इस सरकार के विरोधियों का आरोप है कि जनता द्वारा दिये जाने वाले टैक्स को इस तरह मुफ्त में लुटाने को अच्छी सरकार चलाने की संज्ञा नहीं दी जानी चाहिए. बजाय इसके केजरीवाल सरकार को ऐसी परियोजनाओं पर धन खर्च करना चाहिए था जिनसे स्थायी और दूरगामी समृद्धि की रचना होती और दिल्लीवासियों को रोजगार वगैरह हासिल होता. इस आलोचना के जवाब में आम आदमी पार्टी का कहना है कि उसकी सरकार द्वारा पेश किया गया दिल्ली का आखिरी बजट पहले बजट के दोगुने से भी ज्यादा है. दरअसल, वे ‘सरप्लस’ की अर्थव्यवस्था चला रहे हैं, और उनके कार्यकाल में दिल्ली का कुल घरेलू उत्पाद देश के जीडीपी से कहीं ज्यादा हो गया है. यानी बेहतर टैक्स वसूली के जरिये उन्होंने अपनी आमदनी बहुत बढ़ाई है, और उसी के कारण वे जनता को राहत देने वाली सब्सिडी दे पा रहे हैं. इन रियायतों के बाद भी सरकार बहुत फायदे में है.

दोनों पक्षों के तर्को में कितनी दम है, इसका पता तो 11 फरवरी को लगेगा, जब चुनाव नतीजे आएंगे. लेकिन, बहस से कुछ व्यापक प्रश्न निकल कर आते हैं. जैसे, क्या भारतीय राज्य को अपना लोकोपकारी चरित्र कायम रखना चाहिए, और क्या इसे कायम रखने के लिए उसे सामान्य लोगों को आíथक रियायतें देने की युक्ति भी अपनानी चाहिए? इस प्रश्न का जवाब देने का पहला तरीका तो यह देखना है कि क्या केजरीवाल की सरकार के अलावा भी अन्य सरकारें इस तरह की युक्ति अपना रही हैं? इसी के साथ दो और सवाल भी जुड़े हुए हैं. पहला, क्या किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य देना या उनके कर्ज माफ कर देना या उज्‍जवला योजना के तहत गैस सिलेंडरों की सब्सिडी देना, या आयुष्मान योजना के तहत स्वास्थ्य बीमा योजना चलाना भी इसी तरह की सब्सिडी देने के क्षेत्र में रखा जा सकता है? दूसरा, क्या कॉरपोरेट सेक्टर को सस्ते कर्ज देना, सस्ती जमीन देना और उनके कजरे को बीच-बीच में माफ करते रहने को भी इसी श्रेणी में रखा जाना चाहिए?

इनमें से कौन सी सब्सिडी दूरगामी दृष्टि से समृद्धिकारक है, और कौन सी नहीं? अगर इस प्रश्न का एक कमोबेश उत्तर खोज लिया जाए तो शायद इस उलझन का कुछ समाधान हो सकता है. पहली नजर में लगता यह है कि मौजूदा हालात में आम लोगों की बचत कराने वाली हर सब्सिडी आíथक दृष्टि से उपयोगी और दूरगामी दृष्टि से लाभकारी है. इस समय देश जबरदस्त आíथक संकट के दौर से गुजर रहा है. तकरीबन सभी विशेषज्ञों की राय है कि यह संकट बाजार में मांग के घटने के कारण पैदा हुआ है. ध्यान रहे कि आम लोगों के उपभोग के प्रतिशत में भी असाधारण गिरावट देखी गई है. अगर किसी तरह से मांग बढ़ा दी जाए तो हमारी आíथकी का गिरता हुआ ग्राफ फिर से उठ सकता है. मांग कैसे बढ़ेगी? क्या यह लोगों की क्रय-शक्ति बढ़ाए बिना बढ़ सकती है? खरीद की क्षमता तभी बढ़ेगी जब लोगों की बचत करने की क्षमता में वृद्धि हो, और उसका एक हिस्सा वे बैंक में ले जाएं व दूसरा हिस्सा रोजाना के उपभोग पर व्यय करें.

अगर इस साधारण से लगने वाली दलील के लिहाज से देखा जाए तो माना जा सकता है कि दिल्ली में निम्नवर्गीय और मध्यवर्गो की श्रेणी में आने वाली जनता आर्थिक रियायतों के कारण होने वाली बचत का उपयोग अपने उपभोग की मात्र और स्तर बढ़ाने में कर रही होगी. हालांकि इस बात का पक्का पता तभी लग सकता है जब इसका अलग से अध्ययन किया जाए, लेकिन सामान्य-ज्ञान यही बताता है कि अगर ये रियायतें भी न होतीं तो दिल्ली में आज उपभोग का स्तर और भी नीचे गिर गया होता. जहां तक चुनावी फायदे का सवाल है, इस तरह की सब्सिडियां देने का कुछ न कुछ लाभ नरेंद्र मोदी को 2019 के लोकसभा चुनाव में हो चुका है. अब दिल्ली स्तर पर इसी तरह के लाभ की उम्मीद अरविंद केजरीवाल को है

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