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ब्लॉगः नीतीश कुमार जीते हुए अखाड़े में भाजपा को फिर से वापसी का मौका थमा रहे हैं...

By अभय कुमार दुबे | Updated: August 22, 2022 15:15 IST

नीतीश-तेजस्वी को समुदाय और लोकतंत्र के इस रिश्ते पर गहरा यकीन है। इसलिए वे न तो उस मंत्री को हटाने के लिए तैयार हैं जिसे शपथ लेने के बजाय अदालत में समर्पण करना चाहिए था, और न ही उसे जिसके खिलाफ दीवानी अदालत में घोटाले का मुकदमा विचाराधीन है।

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हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं सत्ता में आने और टिके रहने की राजनीतिक टेक्नोलॉजी के मातहत हो चुकी हैं। अगर किसी चीज का विकास हो रहा है तो वह यही राजनीतिक टेक्नोलॉजी है। होड़ इस बात की है कि कौन इस प्रौद्योगिकी का बेहतर और सफाई से इस्तेमाल करता है, और कौन इसके प्रयोग में चूक कर देता है। दूसरी पार्टी की सरकार तोड़ने वाले की जब अपनी सरकार टूटती है, तो वह ठीक वही दलीलें देता है जो उन लोगों द्वारा दी गई थीं जिनकी सरकार टूटी थी। पीड़ित पक्ष हो या उत्पीड़क पक्ष, दोनों एक-दूसरे की दलीलों को माथे पर बिना कोई शिकन लाए अपना लेते हैं। ऐसा करते समय न तो नेता, न पार्टियां, न उनके समर्थक और अब न ही मीडिया को यह ध्यान आता है कि लोकतंत्र का इंजन अपने साइलेंसर से जो धुआं फेंक रहा है, वह कितना विषैला हो चुका है। इसका एक बड़ा कारण चुनावी लोकतंत्र का सामुदायिकीकरण है।

नीतीश कुमार ने भाजपा पर अपना बिहारी धोबीपछाड़ लगाकर उसे चारों खाने चित तो जरूर कर दिया, लेकिन जिस तरह से उन्होंने और तेजस्वी यादव ने मिलकर सरकार का विन्यास तैयार किया है, उससे लगता है कि वे जीते हुए अखाड़े में भाजपा को फिर से वापसी का मौका थमा रहे हैं। नई सरकार के कुछ मंत्री ऐसे हैं जिन्हें अगर शपथ न दिलाई जाती तो चाचा-भतीजे की जोड़ी पर हमला करने का मौका भाजपा को कम मिलता। इस चक्कर में हुआ यह है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक वर्ग महागठबंधन की इस सरकार की सार्वजनिक साख पर सवालिया निशान लगा रहा है। खास बात यह है कि इस राजनीतिक हमले से नीतीश-तेजस्वी विचलित नहीं हैं। उन्हें लग रहा है कि राज्य के मतदातामंडल का सामाजिक समीकरण काफी हद तक उनके पक्ष में झुका हुआ है, और उनके मतदाताओं पर इन आलोचनाओं का कुछ असर नहीं पड़ेगा। हो सकता है कि उनकी बात ही चुनाव में सही निकले।

अगर ऐसा हुआ तो उसका कारण यह होगा कि मतदान प्राथमिकताओं का पूरी तरह से सामुदायिकीकरण हो गया है। अगर कोई समुदाय किसी सरकार या नेता के पक्ष में है तो कोई कुछ भी कहता रहे, उसके वोट पहले से तय जगह पड़ते हैं। चुनाव से ठीक पहले थोड़ी-बहुत गलती के अंदेशे के बावजूद मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि अमुक जाति के मतदाता किसे वोट देने वाले हैं। नीतीश-तेजस्वी को समुदाय और लोकतंत्र के इस रिश्ते पर गहरा यकीन है। इसलिए वे न तो उस मंत्री को हटाने के लिए तैयार हैं जिसे शपथ लेने के बजाय अदालत में समर्पण करना चाहिए था, और न ही उसे जिसके खिलाफ दीवानी अदालत में घोटाले का मुकदमा विचाराधीन है। नीतीश की ही पार्टी की एक विधायक खुलकर एक महिला मंत्री पर हत्या जैसा संगीन इल्जाम लगा रही हैं, पर नीतीश के प्रवक्ताओं का कहना है कि वह महिला पहले मंत्री थी, और इस बार भी मंत्री बनी रहेगी़

इस कड़वी हकीकत के बावजूद यह प्रश्न तो पूछा ही जा सकता है कि क्या ऐसे विवादास्पद मंत्रियों की नियुक्ति को टालकर एक नई शैली की राजनीति को पुष्ट नहीं किया जा सकता था? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि इस समय किसी पार्टी या किसी नेता के पास नई शैली अपनाने का माद्दा नहीं है। सभी पूर्व-निर्धारित विचारधाराओं, तयशुदा आचरण-संहिताओं, राजनीतिक नैतिकता की मनमानी परिभाषाओं और निहायत अवसरवादी किस्म के चाल-चलन की गिरफ्त में हैं। इस मामले में केवल महागठबंधन की सरकार ही जिम्मेदार नहीं है। न ही यह मसला केवल राजनीति के अपराधीकरण पर होने वाली बहस के दायरे में हल किया जा सकता है। इसका ताल्लुक राजनीति के प्रत्येक क्षेत्र से है, और इसके केंद्र में राजनीतिक शक्तियों द्वारा राजसत्ता का बेरोकटोक जायज-नाजायज दोहन करने की शैली है। किसी भी तरह की नवीनता का खतरा उठाने के बजाय हमारी राजनीति एक-दूसरे की बुराइयां दोहराने में लगी हुई है।

हमें नहीं भूलना चाहिए कि इस देश में कांग्रेस के प्रभुत्व के जमाने में बाकी सभी पार्टियों को बहुत लंबे अरसे तक विपक्ष में रहना पड़ा था। कांग्रेस भी टुकड़ों-टुकड़ों में तकरीबन बीस साल से ज्यादा तक विपक्ष में रहने का अनुभव कर चुकी है। यह देखकर ताज्जुब होता है कि किसी भी दल ने विपक्षी राजनीति करते हुए सत्ता में रहने के किसी वैकल्पिक मॉडल की पेशकश नहीं की, न ही उनमें से किसी पार्टी ने चुनाव लड़ने के किसी किफायती और आदर्श प्रतीत होने वाले मॉडल की प्रस्तावना की। वे सब येन-केन-प्रकारेण सत्ता पर काबिज होकर वही सब करने की प्रतीक्षा करते रहते हैं जिसकी आलोचना करते हुए उनका वक्त गुजरता है।

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