ब्लॉग: लालकृष्ण आडवाणी को सम्मान देर से ही मिला, पर सही मिला

By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Published: February 9, 2024 12:31 PM2024-02-09T12:31:02+5:302024-02-09T12:40:11+5:30

यह अफसोस की बात है कि एक समय में भाजपा के सबसे बड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी को मिला भारत रत्न सम्मान का श्रेय बिहार के समाजवादी नेता स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर को देना पड़ रहा है।

Blog: LK Advani got the honor late, but got it right | ब्लॉग: लालकृष्ण आडवाणी को सम्मान देर से ही मिला, पर सही मिला

फाइल फोटो

Highlightsभाजपा के बड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी को भारत रत्न देर से मिला, लेकिन यह सही कदम हैभाजपा के संस्थापक आडवाणी को इस उपाधि से पहले ही सम्मानित किया जा सकता थालोगों को ऐसा लगता है कि लालकृष्ण आडवाणी के साथ भाजपा ने लगातार अन्याय किया है

अभिलाष खांडेकर:

यह अफसोस की बात है कि लालकृष्ण आडवाणी, जो किसी समय भाजपा के सबसे बड़े नेता थे, को अपने सम्मान का श्रेय बिहार के समाजवादी नेता स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर को देना पड़ रहा है, जिन्हें मरणोपरांत उस समय भारतरत्न से सम्मानित किया गया, जब देश उन्हें पूरी तरह से भूल चुका था। जनवरी में शीर्ष नागरिक सम्मान के लिए ठाकुर का आश्चर्यजनक चयन ओबीसी आरक्षण के अगुवा की मृत्यु के 35 साल बाद और नई दिल्ली में मोदी सरकार के सत्ता में आने के 10 साल बाद हुआ।

अगर वह इतने महान व्यक्ति थे तो उन्हें 2015 या शायद 2018 में इस उपाधि के लिए चुना जा सकता था। मेरे मन में कर्पूरी ठाकुर के खिलाफ कुछ भी नहीं है लेकिन उन्हें इतनी देर से याद क्यों किया गया? यह सम्मान आगामी लोकसभा चुनाव से दो महीने पहले मिला, जिसमें बिहार को महत्वपूर्ण भूमिका निभानी थी, अगर नीतीश कुमार अपनी दलबदलू स्वार्थी आदत के मुताबिक एनडीए में वापस नहीं आते तो इसी तरह भाजपा के संस्थापक आडवाणी को भी इस उपाधि से काफी पहले ही सम्मानित किया जा सकता था। दो भारतरत्नों की घोषणा का समय सवालों का जवाब देता है। यह राजनीति, राजनीति और सिर्फ राजनीति है। देश को समझना होगा।

केंद्र सरकार ने आडवाणी की जगह एक भूले-बिसरे ठाकुर को, जो अपनी ईमानदारी और सादगी के लिए जाने जाते हैं, क्यों अब चुना, यह भी एक पहेली है। क्या यह अनजाने में हुआ या जानबूझ कर? भाजपा के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि हिंदुत्व के दिग्गज नेता की जगह ठाकुर को चुनने से पार्टी कार्यकर्ता नाराज हो गए थे, जिनमें से बड़ी संख्या में लोग अब भी आडवाणी का तहेदिल से सम्मान करते हैं। उनका यह भी मानना है कि आडवाणी के साथ उनकी ही पार्टी ने लगातार अन्याय किया है।

इसलिए जब ठाकुर के चयन पर पार्टी के भीतर आलोचना बढ़ी, भले ही दबी जुबान में, तब कुछ दिनों बाद आडवाणी को भारतरत्न के लिए चुना गया और एक बड़ी राजनीतिक गलती को सुधारा गया। आडवाणी का स्वर्गीय ठाकुर के प्रति मेरा संदर्भ इसी अर्थ में था।

जहां विपक्षी दलों ने भाजपा संस्थापक आडवाणी को देर से सम्मान देने के लिए सरकार पर निशाना साधा है, वहीं भाजपा के कार्यकर्ता आम तौर पर इस बात से खुश हैं कि पार्टी के दिग्गज नेता को आखिरकार उनका हक दिया गया है।

पहले उन्हें मार्गदर्शक मंडल के जरिये किनारे कर दिया गया, फिर भारत के राष्ट्रपति पद के योग्य अधिकार से वंचित कर दिया गया। एक अपेक्षाकृत अज्ञात रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाया गया फिर आडवाणी वर्तमान शासन के लिए लगभग एक अवांछित व्यक्ति बन गए। राम मंदिर के उद्घाटन के लिए उन्हें निमंत्रण देने पर भी एक अनुचित विवाद खड़ा किया गया। भाजपा के नए नेता भले ही पार्टी को 1984-85 में दो सांसदों से लेकर आज की स्थिति तक पहुंचाने में आडवाणी के योगदान को नजरअंदाज करना चाहें, लेकिन लोग जानते हैं कि उन्होंने कितना काम किया था। यह वैसे ही है जैसे वह आरोप कि स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने आधुनिक भारत के लिए उनकी तुलना में कुछ नहीं किया।

आडवाणी भाजपा का पहला कट्टर हिंदुत्व चेहरा थे, जिन्हें 1990 में राम रथ यात्रा निकालने के चलते लालू यादव ने जेल भेजा था। आरएसएस और फिर जनसंघ के सदस्य के रूप में आडवाणी का योगदान बहुत बड़ा रहा है। पूर्व उपप्रधानमंत्री इसलिए प्रधानमंत्री नहीं बन सके क्योंकि वह अपने ही लिए जीने वाले षड्यंत्रकारी नेता नहीं थे।

धार-झाबुआ के आदिवासी इलाके में पार्टी की एक चुनावी रैली में उन्होंने लोगों से पूछा था कि क्या वे अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहेंगे ? बाद में जब उनसे पूछा गया कि वह मध्य प्रदेश-गुजरात क्षेत्र के गरीब आदिवासियों से संभावित प्रधानमंत्री के बारे में क्यों पूछ रहे थे, तो उन्होंने कथित तौर पर कहा था कि वह दिल्ली से दूर मतदाताओं के मूड का परीक्षण कर रहे थे और उन्हें यह बताते हुए खुशी हो रही थी कि वाजपेयी की स्वीकार्यता पूरे देश में दिखाई दे रही है। खासकर सुदूर आदिवासी इलाकों में।

वाजपेयी के पहली बार संसद के लिए चुने जाने से पांच साल पहले 1952 में उनकी मुलाकात आडवाणी से हुई थी। दीनदयाल उपाध्याय ने 1957 में अंग्रेजी में निपुण आडवाणी से संसदीय कार्यों में वाजपेयी की सहायता करने के लिए कहा था।

दोनों प्रसिद्ध मित्र बन गए, जिन्होंने 1980 के बाद से जनसंघ, जनता पार्टी और फिर भाजपा का उस समय नेतृत्व किया, जब कांग्रेस एक प्रमुख ताकत थी। तब सरकार न होते समय पार्टी चलाना कतई आसान नहीं था। अटलजी को एक बार नहीं बल्कि तीन बार प्रधानमंत्री बनाने में आडवाणी की अहम भूमिका थी। दोनों सार्वजनिक जीवन में उच्चतम स्तर की ईमानदारी के लिए जाने जाते थे। वे आडंबर रचने वाले नहीं थे, लोकतांत्रिक मूल्यों का सम्मान करते थे, पढ़े-लिखे थे और अन्य राजनेताओं के प्रति शत्रुता नहीं रखते थे।

हवाला घोटाले में राजनीतिक रूप से फंसने पर आडवाणी ने लोकसभा छोड़ दी थी, जबकि वाजपेयी ने अपनी सरकार को सिर्फ एक वोट के अंतर से गिरने दिया था। ये दुर्लभ उदाहरण हैं उस इतिहास के, जिसे भुला देने की चेष्टा हो रही है। फिर भी आडवाणी को देर से मिला सम्मान राजनीति में उन सिद्धांतों को संजोने में काफी मदद करेगा जिन्हें उन्होंने हमेशा-हमेशा बढ़ावा दिया और राजनीति को मटमैला होने से बचाया।

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