ब्लॉग: अति आत्मविश्वास से बाहर निकलना जरूरी
By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Updated: June 7, 2024 11:55 IST2024-06-07T11:49:53+5:302024-06-07T11:55:04+5:30
भारतीय जनता पार्टी की ‘करारी हार’ किसी आम कार्यकर्ता की हार नहीं है, बल्कि असल में पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की हार है। पूरे देश में माना जा रहा है कि शीर्ष नेतृत्व ‘सामूहिक नेतृत्व’ से कहीं ऊपर था।

फाइल फोटो
किसी पार्टी की जीती या हारी हुईं सीटों से कहीं अधिक, यह चुनाव भाजपा (यानी नरेंद्र मोदी और अमित शाह) को अधिक शक्तिशाली बनाने और विपक्ष को वोट देकर लोकतंत्र में पुन: जान फूंकने के प्रयासों के बीच का चुनाव था। हालिया चुनावों में भाजपा के बहुमत हासिल न कर पाने के पीछे कई कारण बताए जाएंगे।
अगले कुछ महीनों में ढेरों पोस्टमार्टम होंगे लेकिन पिछले दो महीनों में जब मोदी के नेतृत्व में चुनाव प्रचार चरम पर था, तब टीवी स्क्रीन के सामने बैठे या सोशल मीडिया देखते हुए लाखों आम नागरिक जो सोच रहे थे, वह परिणामों पर सीधा असर कर गया। एक विचार सभी के दिमाग में सबसे ज्यादा घूम रहा था वह था भाजपा का बढ़ता अति आत्मविश्वास।
भारतीय जनता पार्टी की ‘करारी हार’ किसी आम कार्यकर्ता की हार नहीं है, बल्कि असल में पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की हार है। पूरे देश में माना जा रहा है कि शीर्ष नेतृत्व ‘सामूहिक नेतृत्व’ से कहीं ऊपर था और इसमें राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी, शिवराज सिंह या योगी आदित्यनाथ जैसे कई वरिष्ठ नेता शामिल नहीं थे।
यह करारी हार पार्टी की घोर विफलता है, जिसमें वह बहुमत के आंकड़े के करीब भी नहीं पहुंच पाई, ‘अबकी बार 400 पार’ की बात तो भूल ही जाइए। इस नारे में भी अति आत्मविश्वास की बू आ रही थी और मतदाताओं को बेहद हल्के में लेने का एक बड़ा संकेत था।
चुनाव में हार-जीत राजनीति का हिस्सा है, फिर भी यह आम चुनाव मुख्य प्रतिद्वंद्वियों-भाजपा और कांग्रेस के लिए मरने या मारने का क्षण था। कांग्रेस (इंडिया) ने भाजपा की कमर तोड़कर यह कर दिखाया। दोनों को मिली सीटों की संख्या के बीच का अंतर शायद पूरी कहानी नहीं बयां करता है। भाजपा 240 पर सिमट गई और कांग्रेस तीन अंकों के जादुई आंकड़े को नहीं छू सकी और 99 पर अटक गई, बावजूद इसके राजनीतिक संदेश स्पष्ट और जोरदार था।
किसी पार्टी की जीती या हारी हुईं सीटों से कहीं अधिक, यह चुनाव भाजपा (यानी नरेंद्र मोदी और अमित शाह) को अधिक शक्तिशाली बनाने और विपक्ष को वोट देकर लोकतंत्र में पुन: जान फूंकने के प्रयासों के बीच का चुनाव था। किसी भी सर्वेक्षणकर्ता या राजनीतिक पत्रकार के लिए यह पता कर पाना सचमुच कठिन होगा कि निम्नलिखित कुछ मुद्दों, नारों या जमीनी कार्यों में से किससे वास्तव में भाजपा को कितने वोट मिले (या कटे)।
ये मुद्दे थे राम मंदिर, विकसित भारत, जी-20 की सफलता, सीमा पार आतंकवाद पर नियंत्रण, धारा 370 को हटाना, तीन तलाक, महंगाई, किसानों के साथ न्याय (या अन्याय), 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज, स्मार्ट सिटी, पर्यावरण संरक्षण, जल-जीवन मिशन, एजेंसियों का भारी दुरुपयोग, गरीबी कम करने का दावा, गंगा की सफाई, बेरोजगारी, बढ़ता भ्रष्टाचार,नक्सलवाद का खात्मा, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में सुधार के दावे, उद्योगों को बढ़ावा देना, मोदी की अन्य गारंटियां।
भाजपा के अपने मतदाताओं को किस बात ने अधिक गुस्सा दिलाया, यह तो कुछ दिनों में पता चलेगा, लेकिन यह तय है कि सत्ता का कुछ ही हाथों में सिमटना मोदी-शाह की जोड़ी के खिलाफ गया, जो अति-आत्मविश्वासी दिखाई दिए। दरअसल, दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करने वाली भाजपा के लिए जनवरी के अंत तक सब कुछ ठीक चल रहा था लेकिन जैसे ही भाजपा ने अपना आक्रामक अभियान शुरू किया और भारत के चुनाव आयोग ने पूरी प्रक्रिया को सत्तारूढ़ पार्टी के अनुकूल थकाऊ, सात-चरणीय कार्यक्रम में फैला दिया, लोग सतर्क हो । 400 सीटों का नारा बुरी तरह से उलटा पड़ गया।
जैसे ही प्रचार सामग्री मीडिया में आने लगी, लोगों को एहसास हुआ कि यह सब व्यक्तिगत रूप से एक व्यक्ति पर केंद्रित है। इसमें भाजपा कहीं भी नहीं है। आरएसएस, हमेशा व्यक्ति पूजा का विरोधी रहा है। नि:स्संदेह, ‘नमो’ आजादी के बाद सबसे बड़े व ताकतवर नेताओं में से एक के रूप में उभरे थे, फिर भी भाजपा के अपने कार्यकर्ताओं और छोटे नेताओं ने उनकी तुलना नेहरूजी से नहीं, बल्कि अपने ही श्रद्धेय अटलजी से करनी शुरू कर दी। भाजपा के उक्त नेताओं में जमीन आसमान का फर्क था।
विपक्षी नेताओं से निपटने के तरीके, मीडिया पर कथित रूप से अंकुश लगाना, राहुल गांधी को लोकसभा से बाहर करना या बहुत बड़ी संख्या में सांसदों को निलंबित करना, कुछ खास उद्योगपतियों को बढ़ावा देना और भाजपा के पुराने सहयोगियों को दरकिनार करना- भाजपा की इस हार में परिलक्षित हुआ है। एनडीए ने कुछ हद तक सत्ता विरोधी भावना को मात देकर लगातार तीसरी बार जीत जरूर हासिल की है, जो सराहनीय है फिर भी, अब समय आ गया है कि भाजपा को यह एहसास हो कि हमेशा ‘मेरी मर्जी’ नहीं चल सकती।
वो समय गया अब अयोध्या या वाराणसी के शहरी विकास में मानवीय स्पर्श होना चाहिए था, जो पूरी तरह से गायब रहा। नए, भव्य परिसरों का निर्माण, सड़कों को चौड़ा करना और लोगों की सुविधाओं व उनकी भावनाओं की कीमत पर निर्माण एजेंसियों के चुनिंदा समूह को लाभ पहुंचाना भाजपा के मतदाताओं को चोट पहुंचा गया । प्रधान सेवक की जीत के अंतर को ही देखें जो बताता है कि हर चीज को शानदार, चमकीला, रंगीन, महंगा और आलीशान होने की जरूरत नहीं है।
उत्तर प्रदेश से भी आगे देखें तो किसानों का मुद्दा, महंगाई पर नियंत्रण न होना, संविधान और आरक्षण पर ‘खतरा’ आदि मुद्दों ने भी लोगों को परेशान किया लेकिन बड़े नेता अपनी वाहवाही में डूबे रहे। नए सहयोगियों के साथ अब भाजपा के पास अलग-अलग विचारों और उदारवादी सोच को समायोजित करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा। एक नए आख्यान का निर्माण जरूरी है। अति आत्मविश्वास को गंगाजी में जाकर डुबो देना हितकर होगा—भाजपा व देश के लिए। (अभिलाष खांडेकर का ब्लॉग)