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ब्लॉग: श्रम के बल पर ही स्वर्ग जैसी बनाई जा सकती है धरती

By गिरीश्वर मिश्र | Published: May 01, 2024 11:50 AM

भारत की सभ्यता प्राचीन काल से कर्म-प्रधान रही है। कर्म से ही सृष्टि होती है। श्रम का विलोम होता है विश्राम। ऐतरेय ब्राह्मण में श्रम का बड़ा ही मनोरम चित्रण मिलता है।

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ठळक मुद्देभारत की सभ्यता प्राचीन काल से कर्म-प्रधान रही हैकर्म से ही सृष्टि होती है, श्रम का विलोम विश्राम होता है ऐतरेय ब्राह्मण में श्रम का बड़ा ही मनोरम चित्रण मिलता है

भारत की सभ्यता प्राचीन काल से कर्म-प्रधान रही है। कर्म से ही सृष्टि होती है। श्रम का विलोम होता है विश्राम। ऐतरेय ब्राह्मण में श्रम का बड़ा ही मनोरम चित्रण मिलता है। श्रम करने से न थकने वाले को ही श्री की प्राप्ति होती है- नानाश्रांताय श्रीरस्ति। श्रम से असंभव भी संभव हो जाता है। श्रम से ही आदमी सम्पत्ति, यश, सम्मान सब कुछ अर्जित करता है। तभी तो कहा गया कि कर्मठ पुरुष लक्ष्मी को प्राप्त करता है- उद्योगिन: पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी और आलस्य शरीर में बैठा हुआ सबसे बड़ा शत्रु है।

ऐसे में यह अनायास नहीं था कि ‘हिंद स्वराज’ के रचयिता राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने इस धरती को कर्म-भूमि कहा था। जीवन के बड़े सत्य को सामने रख कर बापू ने जीवन-चर्या में कर्म की अनिवार्यता प्रतिपादित करते हुए यह सीख दी थी कि आदमी को कमा कर खाना चाहिए। एक-एक क्षण का सदुपयोग करते हुए इस सूत्र को बापू अपने वास्तविक जीवन में उतारते रहे।

आज जीवन को तकनीकी संचालित करने लगी है और कार्य और विश्राम के बीच की सीमा रेखा धूमिल हो रही है। इसी तरह यथार्थ और आभासी (वर्चुअल) दुनिया को निकट ले आती इंटरनेट और डिजिटल उपकरणों से लैस होती जा रही हमारे काम-काज की दुनिया उलट-पलट हो रही है। अब बहुत सारे काम लैपटॉप या मोबाइल पर उंगली फिराने भर से पूरे हो जा रहे हैं।

इसका असर कार्यों की प्रकृति और उसके आयोजन को प्रभावित पर पड़ रहा है। ऑफिस न जाकर घर से काम करने का चलन तेजी से बढ़ रहा है। कार्यों के विभाजन और उसकी नियमितता को सुरक्षित रखते हुए गतिशीलता लाने की दिशा में कदम बड़ी तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। परंतु मानवीय संबंधों और भावनाओं की दुनिया से दूर होती जा रही कार्य की दुनिया अधिकाधिक यांत्रिक हुई जा रही है।

इसी के साथ वैयक्तिकता और आत्मकेंद्रितता बढ़ रही है और सामाजिकता संकुचित हो रही है। साइबर गतिविधियों के बढ़ने के साथ बहुत सारे नए नैतिक और आपराधिक सवाल भी खड़े हो रहे हैं। शारीरिक श्रम में बढ़ती कटौती और काम करने में सुभीते के साथ अवकाश का समय बढ़ रहा है। पर बचे समय का सार्थक उपयोग करने की संस्कृति अभी विकसित नहीं हो सकी है।

स्क्रीन टाइम बढ़ रहा है। सोशल मीडिया से जुड़ना, पर्यटन पर जाना, मादक द्रव्य व्यसन और किस्म-किस्म की पार्टी आयोजित करना बढ़ रहा है। इसमें अपराध और असामाजिक तत्वों की भागीदारी भी हो रही है। इन सब बदलावों के बीच श्रम का आकार प्रकार नए रूप पा रहा है। हमें संतुलन बनाते हुए राह बनानी होगी क्योंकि श्रम हमारे अस्तित्व की अनिवार्य शर्त है जिससे बचा नहीं जा सकता। रचनात्मकता भी तभी आ सकेगी जब हम श्रम को जीवन यात्रा के मध्य प्रतिष्ठित करेंगे।

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