राजेश बादल का ब्लॉग: कांग्रेस के नेतृत्व पर सवाल से पहले उलटकर भाजपा का अतीत भी देखना चाहिए
By राजेश बादल | Published: March 15, 2022 10:34 AM2022-03-15T10:34:23+5:302022-03-15T10:36:25+5:30
कांग्रेस पार्टी का इतिहास देखें तो आजादी के बाद गांधी परिवार से बाहर के अनेक अध्यक्ष हुए हैं. एक बार उलटकर भाजपा का अतीत भी देखना चाहिए.
कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में शिखर नेतृत्व ने इस्तीफों की पेशकश कर दी. यदि इससे संगठन मजबूत होता है तो कार्यसमिति को क्यों ऐतराज होना चाहिए? लेकिन कार्यसमिति ने ऐसा नहीं किया. संभवतया उसने सोचा कि यदि आलाकमान ही पार्टी मंच से अनुपस्थित हो गया तो फिर हार का ठीकरा किसके सिर फोड़ेंगे और यह भी कि क्या वे पार्टी के प्रथम परिवार को बाहर करके अपने दम पर इस विराट देश में कांग्रेस को पुनर्जीवित कर सकते हैं?
यह काम तो इस परिवार के बिना उस जमाने में भी नहीं हो सका, जब मोरारजी देसाई, के. कामराज, निजलिंगप्पा, डॉक्टर शंकर दयाल शर्मा, चौधरी चरण सिंह, चंद्रभान गुप्ता, पी.वी. नरसिंह राव, मोहन धारिया, रामधन और कृष्णकांत चव्हाण, चंद्रशेखर, देवकांत बरुआ, जगजीवन राम और हेमवतीनंदन बहुगुणा जैसे दिग्गज संगठन के कर्णधार थे.
इनमें से कुछ तो पार्टी अध्यक्ष भी रहे, पर उनका कार्यकाल औसत ही रहा. इंदिरा गांधी ने दो बार कांग्रेस की पुनर्रचना की. तब भी सारे शिखर पुरुष उनके साथ नहीं थे. लेकिन उन्होंने जब पार्टी को गढ़ा तो नई नवेली कांग्रेस ने लगभग पच्चीस बरस तक मुल्क में सरकार चलाई.
क्या आज गांधी परिवार से अलग होकर पार्टी में बदलाव की मांग करने वाले नेता - कार्यकर्ता यह करिश्मा कर सकते हैं? शायद नहीं. फिर भी वे गांधी परिवार को बाहर करके नेतृत्व की नई दुनिया बसाने की इच्छा रखते हैं. यह एक लोकतांत्रिक चाहत है. इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है. नौजवानों की बड़ी आबादी वाले भारत में यदि बुजुर्ग दल की बागडोर नए और गरम खून को सौंपी जाती है तो उससे राष्ट्र का भला ही होगा.
कांग्रेस का शिखर नेतृत्व त्यागपत्रों का प्रस्ताव रखने के सिवा और कर भी क्या सकता था? पार्टी का इतिहास देखें तो आजादी के बाद गांधी परिवार से बाहर के अनेक अध्यक्ष हुए हैं. इस बूढ़ी पार्टी के गठन के बाद 97 बार अध्यक्ष का चुनाव हुआ. इनमें 76 बार गांधी- नेहरू परिवार से बाहर के अध्यक्ष रहे. केवल 21 बार गांधी-नेहरू परिवार से अध्यक्ष चुने गए.
इनमें मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी शामिल हैं. आजादी के बाद कांग्रेस में पैंतीस बार अध्यक्ष का चुनाव हुआ. इनमें 22 बार नेहरू-गांधी परिवार से बाहर के अध्यक्ष रहे और केवल 13 बार परिवार के पांच लोग अध्यक्ष चुने गए.
इनमें जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी के नाम शामिल हैं. यानी अनुपात के नजरिये से परिवार को अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी इतनी अधिक भी नहीं मिली कि उसके लिए संगठन के भीतर बवाल खड़ा किया जाए.
याद दिलाना चाहूंगा कि राजीव गांधी के निधन के बाद सोनिया गांधी टूट गई थीं. पति की हत्या के बाद उन्होंने राजनीति में नहीं आने का फैसला किया था और कांग्रेसियों से अपने दम पर पार्टी चलाने की प्रार्थना की थी. उनकी मानसिक स्थिति देखते हुए नरसिंह राव ने तीन बार अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी ली. लेकिन वे कांग्रेस में प्राण नहीं फूंक सके और कांग्रेस 1996 के चुनाव के बाद बिखर गई.
इसके बाद सीताराम केसरी ने अध्यक्ष पद संभाला. उनके कार्यकाल में भी पार्टी बेहतर नहीं कर पाई और लोकसभा चुनावों में उसे दो बार फिर मुंह की खानी पड़ी. देश के नागरिकों ने समझ लिया कि अब कांग्रेस का अस्तित्व समाप्त हो गया है. कांग्रेसी घटाटोप अंधेरे में थे. फिर वे सोनिया गांधी के पास गए, जिन्होंने खुद को पृष्ठभूमि में डाल लिया था.
पार्टी की विरासत और परिवार के योगदान को देखते हुए सोनिया गांधी ने जिम्मेदारी समझी और फिर डॉक्टर मनमोहन सिंह के नेतृत्व में दस साल सरकार चलाई. इस तथ्य को क्या वे लोग नकार सकते हैं, जो इन दिनों नेतृत्व परिवर्तन की मांग उठा रहे हैं.
प्रसंगवश पार्टी कार्यकर्ताओं को याद रखना चाहिए कि राहुल गांधी की साल भर की अध्यक्षता अवधि में ही मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा को सत्ता से बाहर कर दिया गया था. भाजपा का डर यही है.
इसीलिए वह कांग्रेस में मौजूद अपने प्रति सहानुभूति रखने वाले नेताओं से गांधी-नेहरू परिवार के विरोध का स्वर मुखरित कराती रहती है. जब कोई चुनाव आता है तो इसी वर्ग में से टूट-टूट कर लोग भारतीय जनता पार्टी में शामिल होते रहते हैं.
एक बार उलटकर भाजपा का अतीत देखिए. उसके केवल 42 साल के जीवन में 12 बरस तो सिर्फ लालकृष्ण आडवाणी ही अध्यक्ष रहे. इसके बाद छह साल अटल बिहारी वाजपेयी और करीब छह साल अमित शाह ने पद संभाला. कुल 24 साल तक पार्टी की कमान केवल तीन नेताओं के हाथ में रही.
आडवाणी और अटलजी के नेतृत्व में पार्टी ने कितनी बार नाकामी हासिल की, यह छिपा नहीं है. इसके बाद भी नेतृत्व के प्रति इतना गुस्सा कभी सामने नहीं आया. आप कह सकते हैं यह एक नकली धारणा (आप इसे परसेप्शन कह सकते हैं ) को बनाने और बेचने की सियासत है.
नेतृत्व बदलने की मांग करने वाले प्रतिद्वंद्वी पार्टी के चक्रव्यूह में उलझे नजर आते हैं. वे नहीं समझते कि भाजपा नेतृत्व को सिर्फ कांग्रेस चुनौती दे सकती है. उसमें जब तक गांधी परिवार का अस्तित्व है, तब तक भाजपा का नेतृत्व असुरक्षित महसूस करता रहेगा. इसीलिए वह जब तब अपने सोशल और डिजिटल माध्यमों के जरिए नेहरू-गांधी परिवार के नेतृत्व पर सवाल उठाती रहती है. कांग्रेस का एक वर्ग उसका शिकार बन जाता है.