श्रीमंत माने का ब्लॉग: प्रभाव महात्मा गांधी का और जयजयकार तिलक महाराज की!
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: December 28, 2020 13:03 IST2020-12-28T12:59:29+5:302020-12-28T13:03:03+5:30
महात्मा गांधी 1915 में जब दक्षिण अफ्रीका से लौटे, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक उस समय तक देश के सर्वोच्च नेता थे. लेकिन उन्हें कभी भी कांग्रेस की अध्यक्षता करने का सम्मान नहीं मिला.

महात्मा गांधी (फाइल फोटो)
पिछले सौ से अधिक वर्षो से इतिहासकार, इतिहास के अध्येता, लेखक महात्मा गांधी और लोकमान्य तिलक के बीच कथित विवादों, अलगाव और मतभेदों की बात कहते रहे हैं.
ब्रिटिश भारत में दो नेता, जिनका अफगान सीमा से म्यांमार तक भारतीय उपमहाद्वीप पर बहुत बड़ा प्रभाव था, उनका स्वतंत्रता आंदोलन में दृष्टिकोण, नेतृत्वगुण, संगठनात्मक कौशल आदि एक जैसे नहीं थे. ऐसा होना भी नहीं था. लेकिन क्या उनके बीच अभेद्य राजनीतिक शत्रुता थी?
1920 में नागपुर में कांग्रेस का अधिवेशन, जो कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में मील का एक पत्थर है, इस सवाल पर प्रकाश डालता है, क्योंकि इस अधिवेशन में प्रभाव था महात्मा गांधी का और जयजयकार लोकमान्य तिलक महाराज की हो रही थी.
कोरोना वायरस के संक्रमण और राजनीतिक उदासीनता के चलते नागपुर कांग्रेस का शताब्दी समारोह कितने बड़े पैमाने पर मनाया जा रहा है, यह अलग बात है लेकिन वह ऐतिहासिक घटना राजनीति और इतिहास के छात्रों के लिए जानने योग्य है.
महात्मा गांधी 1915 में जब दक्षिण अफ्रीका से लौटे, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक उस समय तक देश के सर्वोच्च नेता थे. लेकिन उन्हें कभी भी कांग्रेस की अध्यक्षता करने का सम्मान नहीं मिला. सूरत की फूट के बाद नागपुर में 1908 का सम्मेलन आयोजित करने का असफल प्रयास किया गया था. लेकिन तिलक को राजद्रोह का दोषी ठहरा कर मांडले जेल भेज दिया गया.
रिहाई के बाद, तिलक ने 1916 के लखनऊ समझौते के अवसर पर हिंदू-मुस्लिम एकता की नींव रखी. बाद में वे इंग्लैंड गए. भारत लौटने पर उनके समर्थकों ने मध्य प्रांत का अधिवेशन आयोजित करने का फैसला किया. अधिवेशन नागपुर में हो या जबलपुर में, इस पर मतभेद था.
अंत में नागपुर में आयोजन का फैसला किया गया क्योंकि वरहाड़ के नेताओं ने मध्य प्रांत में मराठी नेताओं का साथ दिया. लेकिन तिलक के भाग्य में कांग्रेस का अध्यक्ष पद नहीं था जबकि अधिवेशन के आयोजकों में मुख्य रूप से तिलक समर्थक थे. उनके लिए वे तिलक महाराज थे. 1 अगस्त 1920 को मुंबई में तिलक का निधन हो गया. समर्थकों के लिए यह वज्राघात के समान था.
निराश होकर नागपुर के लोग पुडुचेरी (तत्कालीन पांडिचेरी) गए और योगी अरविंद से अध्यक्ष पद स्वीकार करने के लिए आग्रह किया. स्वागत समिति के महासचिव डॉ. बालकृष्ण शिवराम मुंजे और डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार इसके लिए वहां गए थे.
हालांकि, वे योगी अरविंद को मनाने में सफल नहीं हुए जिन्होंने सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया और अपना शेष जीवन अध्यात्म में बिताया. मद्रास प्रांत के चक्रवर्ती विजय राघवाचारी की अध्यक्षता में अधिवेशन को सफल बनाने के लिए, स्वागताध्यक्ष सेठ जमनालाल बजाज के नेतृत्व में नागपुर के लोगों ने कड़ी मेहनत की.
पिछले सौ वर्षो से कहा जाता रहा है कि एक अज्ञात दक्षिणी नेता को नागपुर कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में चुना गया. लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं था. 18 जून 1852 को मद्रास प्रांत के चेंगलपट्टू जिले में जन्मे वे एक प्रगतिशील विचारक थे. विजय राघवाचारी को दक्षिण भारत का शेर कहा जाता था.
तिलक के हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रयोग को गांधीजी ने असहयोग आंदोलन के रूप में आगे बढ़ाया. 13 अप्रैल 1919 का जलियांवाला बाग नरसंहार, इसके परिणामस्वरूप उपजा असंतोष, मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों की निर्थकता और सुधारों का आकर्षण बेअसर रहने के कारण लाया गया रौलेट एक्ट जिसमें बिना किसी जांच के दो साल तक जेल में रखने का मनमाना प्रावधान था, इस असहयोग आंदोलन की पृष्ठभूमि थी.