राज कुमार सिंह
लगभग पौने नौ साल से केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा ने अगले लोकसभा चुनाव के लिए बिगुल तो बजा दिया है, पर 2024 की राह शायद 2014 और 2019 जितनी आसान नहीं होगी. किसी भी सत्तारूढ़ दल के विरुद्ध सत्ता विरोधी भावना तो उसके कामकाज के मद्देनजर कम-ज्यादा होती ही है, लेकिन भाजपा ने अपने सत्ता-सफर में राजनीतिक दोस्त भी गंवाए हैं.
संभव है कि इसका बड़ा कारण उसे 2014 के लोकसभा चुनाव में अकेले दम बहुमत मिल जाना रहा हो. उत्तर प्रदेश में मिली 71 सीटों के बल पर तब भाजपा लोकसभा में 282 सीटें जीतने में सफल रही, जो बहुमत के आंकड़े से 10 ज्यादा थीं. फिर भी उसने सहयोगी दलों के साथ केंद्र में एनडीए सरकार बनाई.
2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 300 पार का नारा ही नहीं दिया, सत्ता विरोधी भावना की अटकलों को खारिज करते हुए 303 सीटें जीत कर सभी को चौंका भी दिया.
ऐसे में यह आशंका कि 2024 की राह भाजपा के लिए बहुत आसान नहीं होगी, बहुतों को निराधार भी लग सकती है, पर इस बीच बदले वास्तविक राजनीतिक समीकरणों को नजरअंदाज कर पाना भी समझदारी नहीं. सत्ता के साथ मित्र बदलते रहते हैं, लेकिन महाराष्ट्र में शिवसेना, पंजाब में शिरोमणि अकाली दल और बिहार में जदयू के साथ भाजपा की मित्रता को उस श्रेणी में रखना उचित नहीं होगा.
ये दल तब भाजपा के साथ आए, जब उसे राष्ट्रीय राजनीति में अलग-थलग माना जाता था. ध्यान रहे कि 1996 में लोकसभा में सबसे बड़े दल के रूप में केंद्र में सरकार बनाने के बावजूद प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी बहुमत नहीं जुटा पाए थे और महज 13 दिन बाद इस्तीफा देना पड़ा था.
ऐसे में भाजपा के महाराष्ट्र से लेकर पंजाब-बिहार तक नाराज दोस्तों से ही फिर हाथ मिलाने पर ज्यादा आश्चर्य नहीं होना चाहिए. इसलिए भी कि वैसा करना दोनों ही पक्षों के लिए राजनीतिक रूप से लाभदायक होगा.