बिहार वोटर अधिकार यात्राः 25 जिला, 15 दिन और 1300 किमी, राहुल गांधी की यात्रा से कांग्रेस को कितना होगा लाभ...?
By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Updated: September 3, 2025 05:19 IST2025-09-03T05:19:37+5:302025-09-03T05:19:37+5:30
Bihar Voter Rights Yatra: कांग्रेस को क्या उसकी राजनीतिक जमीन वापस मिलेगी या फिर लाभ की स्थिति यदि बनती है तो सारी मलाई तेजस्वी यादव खा जाएंगे?

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Bihar Voter Rights Yatra: बिहार में वोटर अधिकार यात्रा का समापन हो गया है. इस यात्रा के लिए राहुल गांधी 15 दिन बिहार में रहे और अपने राजनीतिक सहयोगियों के साथ 25 जिलों में करीब 1300 किलोमीटर की यात्रा की. बहुत दिनों बाद किसी ने बिहार को अपनी यात्रा से इस कदर झकझोरा. मगर सबसे बड़ा सवाल है कि राहुल गांधी की इस यात्रा से क्या कांग्रेस को वाकई कोई लाभ होने वाला है? कांग्रेस को क्या उसकी राजनीतिक जमीन वापस मिलेगी या फिर लाभ की स्थिति यदि बनती है तो सारी मलाई तेजस्वी यादव खा जाएंगे?
यह सवाल अभी भविष्य के गर्भ में है क्योंकि जनसुराज के रूप में प्रशांत किशोर एक तीसरे फैक्टर के रूप में मौजूद हैं जो राजनीतिक रूप से मजबूत और लालू यादव के सारथी यादव समाज से पूछ रहे हैं कि किसी पढ़े-लिखे यादव को मुख्यमंत्री बनने का मौका क्यों नहीं मिलना चाहिए? लालू यादव यादवों के मसीहा बनते हैं लेकिन मुख्यमंत्री अपने नौवीं फेल बेटे को क्यों बनाना चाहते हैं?
इस वोटर अधिकार यात्रा में राहुल गांधी के साथ तेजस्वी यादव लगातार बने रहे और कमाल की बात है कि जो पप्पू यादव लालू और तेजस्वी को भला-बुरा कहने से कभी नहीं चूकते थे, वे भी साथ आ गए. यहां तक कि कन्हैया कुमार ने भी पप्पू यादव को बर्दाश्त किया. ऐसा लगा कि सब साथ हैं लेकिन पुराना इतिहास देखें तो लालू यादव ने ही कांग्रेस को बिहार से उखाड़ फेंका था.
1989 में भागलपुर में भीषण दंगा हुआ था. उस वक्त कांग्रेस की सरकार थी. लालू यादव ने कांग्रेस को घेरा और 1990 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का सफाया हो गया. जनता दल के नेता के रूप में लालू मुख्यमंत्री बने. उन्होंने एमवाय यानी मुस्लिम-यादव समीकरण को साधा. 1995 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 324 सीटों में से केवल 29 सीटें मिलीं.
लालू फिर मुख्यमंत्री बने लेकिन चारा घोटाले के कारण जनता दल ने उनका साथ छोड़ दिया और लालू ने राष्ट्रीय जनता दल (राजद) बना लिया. कांग्रेस इतनी बुरी हालत में आ गई थी कि 1998 के लोकसभा चुनाव में उसने लालू से हाथ मिलाया. सन् 2000 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस ने अकेले लड़ने का फैसला किया क्योंकि उसकी नजर में तब तक लालू यादव भ्रष्ट हो चुके थे.
कांग्रेस को 23 सीटें मिलीं और लालू बहुमत से दूर रह गए. नीतीश कुमार सात दिनों के लिए मुख्यमंत्री बने मगर इसी बीच कांग्रेस ने राजद को समर्थन दे दिया और राबड़ी देवी को लालू ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठा दिया. 2005 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस राजद से फिर अलग हो गई. इस बार किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला और राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा.
कुछ ही महीनों में बिहार में फिर से चुनाव हुआ और राजद तथा कांग्रेस फिर साथ आ गए. 2010 में विधानसभा चुनाव में कांग्रेस अकेले मैदान में उतरी लेकिन फजीहत हो गई, केवल 4 सीटें मिलीं. 2015 में भी फिर दोनों साथ आए और कांग्रेस को 27 सीटें मिलीं. इस पूरी यात्रा के दौरान कांग्रेस वास्तव में राजद के पिछलग्गू की तरह रही.
उसका संगठन समाप्त होता गया. कांग्रेस के पास इस वक्त बिहार में एक भी नेता नहीं है जिसे व्यापक समर्थन हासिल हो या जिसे बड़े कद का नेता कहा जाए. जिला स्तर पर भी उसका संगठन करीब-करीब समाप्त हो चुका है. कांग्रेस ने कोशिश की थी कि कन्हैया कुमार को कुछ जिम्मेदारी दी जाए लेकिन गठबंधन की राजनीति ने यह पांसा भी पलट दिया.
तेजस्वी यादव नहीं चाहते हैं कि कन्हैया कुमार बिहार में कोई चुनौती बनें इसलिए उनके पर काट दिए गए हैं. यही कारण है कि राजनीतिक विश्लेषक यह मानकर चल रहे हैं कि यदि राहुल गांधी की यात्रा का लाभ किसी को मिलेगा तो वह तेजस्वी यादव होंगे क्योंकि अगले चुनाव में मुख्यमंत्री का चेहरा वही हैं. कांग्रेसियों को कुछ भी नहीं मिलने वाला है क्योंकि राजद के सामने कांग्रेस मुंह खोलने की स्थिति में भी नहीं है.