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भयावह हादसे के चार दशक, नहीं सीखे सबक

By राजेश बादल | Updated: December 4, 2025 07:03 IST

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कहते हैं वक्त सारे घाव भर देता है. लेकिन, इस मामले में ऐसा नहीं हुआ है. जैसे-जैसे समय गुजरता है, टीस और तड़प बढ़ती जाती है. घाव भरने के बजाय नासूर बनता जा रहा है. भोपाल में यूनियन कार्बाइड कारखाने से दो और तीन दिसंबर की दरम्यानी रात रिसी जहरीली मिथाइल आइसो साइनेट गैस काल का कहर बनकर भोपाल पर टूटी थी. बाइस हजार से ज्यादा लोग मारे गए और पांच लाख से ज्यादा लोग रासायनिक दंश का असर जिंदगी भर भोगते रहे. आज उनके बाद की दो पीढ़ियां भी उस जहर का असर अपनी देह के भीतर महसूस कर रही हैं. अब तक पचास हजार से अधिक बेकसूर जानें जहरीली गैस के असर से जा चुकी हैं और तिल-तिल करके हजारों लोग अपने शरीर को लाश की तरह ढोते इस जहान से कूच करते जा रहे हैं. इन निर्दोष नागरिकों को न इलाज मिला और न न्याय. इस जघन्य नरसंहार के आरोपी सारी उमर ऐशोआराम में जीते रहे. उन्हें न सजा हुई और न वे सलाखों के पीछे पहुंचे. गैस पीड़ितों की आहें और कराहें आज भी बरकरार हैं. उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती की तरह दब गई है.

गुज़िश्ता चालीस बरस में दो पीढ़ियां गुजर गई हैं. मगर पीड़ितों का आक्रोश और शोक जस का तस है. हर साल तीन दिसंबर को भोपाल रोता है. चौराहे-चौराहे शोक सभाएं होती हैं, मातमी रैलियां निकलती हैं और सर्वधर्म प्रार्थना सभाएं होती हैं. थोड़ी देर के लिए घावों पर मरहम लगता है. दिन बीत जाता है. अगले दिन से सब सामान्य हो जाता है. संसार की सबसे बड़ी इंसानी त्रासदी को लोग भूल जाते हैं.

दरअसल यह केवल व्यवस्था का दोष नहीं है कि गैस त्रासदी दिवस को एक कलंकित दिवस मानकर गैस पीड़ितों को उनके हाल पर मरने के लिए छोड़ दिया गया है, बल्कि समाज की ओर से भी अब इन तकलीफजदा इंसानों के प्रति संवेदनहीन रवैया अपनाया जा रहा है. चिकित्सा सुविधाएं भी धीरे-धीरे कम होती गई हैं. भारतीय चिकित्सा शोध परिषद ने भी अब अपने अनुसंधान करीब-करीब बंद कर दिए हैं. आईसीएमआर ने इस हादसे के दस साल तक अपने शोध पत्र जारी किए थे. उसके बाद यह प्रक्रिया रोक दी गई. यह शोध पत्र या रिपोर्ट अब तक की सबसे प्रामाणिक रिपोर्ट मानी जाती है. लेकिन अब यह सिलसिला रुकने से भविष्य में होने वाले हादसों से बचाव की दिशा में काम ठप हो गया है. यूनियन कार्बाइड अनाज उत्पादन बढ़ाने के लिए भोपाल में रासायनिक खाद बनाने के कारखाने का लाइसेंस लेकर आई थी. उन दिनों देश में अनाज की तंगी थी इसलिए उर्वरक कारखाने को लाइसेंस दे दिया गया. वह मजबूरी थी, मगर आज मजबूरी नहीं है. कौन कह सकता है कि आज देश में रासायनिक खाद बनाने वाले कारखानों में कोई जहरीले रसायन नहीं इस्तेमाल हो रहे हैं. इसकी क्या गारंटी है. प्रसंगवश बता दूं कि यूनियन कार्बाइड के उस कारखाने को अमेरिका के वर्जीनिया से ऐसे ही हादसे के बाद देश निकाला दे दिया गया था, जिसे हमारे यहां मंजूरी दे दी गई.

सत्रह साल पहले केंद्र की यूपीए सरकार ने गैस पीड़ितों के लंबे समय तक पुनर्वास के लिए विशेष आयोग बनाने का ऐलान किया था, लेकिन उस समय की प्रदेश सरकार ने इस प्रक्रिया को रोक दिया. गैस पीड़ितों की लड़ाई लड़ने वाले संगठनों का कहना है कि इस फैसले का असर आज भी दिखाई देता है. गैस के शिकार सैकड़ों परिवार अभी तक उम्दा इलाज और आर्थिक मदद से वंचित हैं. उनकी अगली पीढ़ियां भी ऐसी ही कठिनाइयों का सामना कर रही हैं. गैस पीड़ितों के लिए बनाए गए विशेष अस्पताल में न तो विशेषज्ञ उपलब्ध हैं, न दवाएं और न बारीक जांच की सुविधा. अस्पताल का बजट भी साल-दर-साल सिकुड़ता जा रहा है.

चंद रोज पहले गैस पीड़ितों के संगठनों ने एक श्वेतपत्र जारी किया था. इसमें आरोप लगाया गया है कि 1982 से 2024 के बीच डॉव केमिकल को भारत में विस्तार के लिए अनुकूल पर्यावरण मुहैया कराया गया है. बता दूं कि यूनियन कार्बाइड अब डॉव केमिकल के रूप में पहचानी जाती है. संगठनों का यह भी कहना है कि डॉव केमिकल को उसके आपराधिक कृत्य के लिए सजा देने के बजाय कारोबार विस्तार की अनुमति दी जा रही है. त्रासदी के इकतालीसवें बरस में भी इस हादसे के चलते-फिरते प्रेत-संस्करण भोपाल में हजारों बाशिंदों के रूप में देखे जा सकते हैं.मुझे नहीं याद आता कि दूसरे विश्वयुद्ध के दरम्यान हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु हमले के बाद सामान्य स्थिति में हजारों जिंदगियों को बरबाद करने वाला कोई और अमानवीय अपराध किसी मुल्क में हुआ हो. यूनियन कार्बाइड की लापरवाही अथवा शोध - साजिश का घातक जहर कई पीढ़ियों की देह में आज भी अपने विकराल रूप में दौड़ रहा है और हम तथाकथित सभ्य समाज के लोग इसे नपुंसक आक्रोश के साथ स्वीकार करने पर विवश हैं.

जब यूनियन कार्बाइड भोपाल की हजारों जिंदगियों को निगल रही थी तो मैं भी अपने समाचार पत्र के लिए रिपोर्टिंग करने यहां की गलियों में कई दिन भटकता रहा था. रोज दारुण और लोमहर्षक जहरीली कथाएं हमारे सामने आतीं थीं, जिन्हें लिखते हुए भी हाथ कांपा करते थे. प्रतिदिन हम यही सोचते कि नियति कभी किसी पत्रकार को ऐसा कवरेज करने का दिन न दिखाए. पर, सब कुछ अपने चाहने से नहीं होता. अपनी आधी सदी की पत्रकारिता में मैंने ऐसा दूसरा उदाहरण नहीं देखा कि मानवता को कलंकित करने वाले अपराधी बेखौफ घूमते रहें और पीड़ित छले जाते रहें. विडंबना तो यह है कि चालीस बरस बाद भी हमारे बीच इस वीभत्स मामले का कोई सिलसिलेवार और प्रामाणिक दस्तावेजीकरण नहीं है, सिवाय एक-दो किताबों और एकाध फिल्मों के. गंभीर और अधिकृत दस्तावेज के रूप में हमारे सामने कुछ भी नहीं है. क्या हम सबक के लिए अगला हादसा होने का इंतजार करेंगे?

टॅग्स :भोपाल
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