अमिताभ श्रीवास्तव का ब्लॉग: कोरोना वायरस आंकड़ों के आगे जहां और भी हैं..!

By अमिताभ श्रीवास्तव | Published: September 29, 2020 02:29 PM2020-09-29T14:29:33+5:302020-09-29T14:29:33+5:30

भारत में ‘कोविड-19’ वायरस के फैलने की सही पहचान होने के बाद देश में 24 मार्च से लॉकडाउन जैसे कदम उठाए जाने आरंभ हुए, जिनसे बीमारी को लेकर सरकारी गंभीरता का अंदाज लगा. उसके बाद हर दिन के हालात, आंकड़े बताए गए

Amitabh Srivastava blog: Where is the corona virus ahead of figures ..! | अमिताभ श्रीवास्तव का ब्लॉग: कोरोना वायरस आंकड़ों के आगे जहां और भी हैं..!

अमिताभ श्रीवास्तव का ब्लॉग: कोरोना वायरस आंकड़ों के आगे जहां और भी हैं..!

कोरोना संक्रमण के गति पकड़ने के छह माह बाद यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि वैश्विक बीमारी अब आंकड़ों का खेल बन चुकी है, जिसे जैसे चाहे वैसे समझाया जा सकता है. कुछ देर के लिए खुश भी हुआ जा सकता है, मगर खुशी के पलों के खत्म होने के बाद सवाल फिर वहीं आकर अटकता है कि महामारी कब समाप्त होगी? जिसका जवाब किसी के पास नहीं है. आश्चर्य तो सबसे बड़ा यह है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सबसे बड़ी सभा संसद के बैठने पर भी इस बीमारी की ताजा स्थिति को लेकर न तो कोई समीक्षा हुई, न किसी ने खास चर्चा का आग्रह रखा. शायद संकट के दौरान हमाम में सभी नंगे ही हैं.

भारत में ‘कोविड-19’ वायरस के फैलने की सही पहचान होने के बाद देश में 24 मार्च से लॉकडाउन जैसे कदम उठाए जाने आरंभ हुए, जिनसे बीमारी को लेकर सरकारी गंभीरता का अंदाज लगा. उसके बाद हर दिन के हालात, आंकड़े बताए गए. कमोबेश वह स्थिति आज भी जारी है, जब संक्रमण के साठ लाख से ज्यादा मामले सामने आ चुके हैं और 95 हजार से ज्यादा लोग जान गंवा चुके हैं. देश में कोरोना वायरस के लिए करीब सवा सात करोड़ जांच भी हो चुकी हैं. इन आंकड़ों की अधिक गहराई में जाया जाए तो मृत्यु दर डेढ़ फीसदी के आसपास है और स्वस्थ होने की स्थिति 82 प्रतिशत के इर्द-गिर्द है. संक्रमण पहचान दर दस प्रतिशत के नजदीक चल रही है.

कुल जमा बीमारी का यह हिसाब-किताब दुनिया को दिखाने के लिए एक उजली तस्वीर है, मगर क्या यह कोरोना का डर या आतंक कम कर रही है, इसका जवाब न तब है जब बाजारों में भीड़ दिखाई देती है और हां तब है, जब इसका शिकार देश की इलाज व्यवस्था के चंगुल में फंसता है. हालांकि चिकित्सा जगत के विशेषज्ञ बीमारी का बड़ा स्पष्ट फामरूला तय कर चुके हैं, जिसके अनुसार बीमारी अस्सी फीसदी मामलों में तो यूं ही ठीक हो जाती है. दस-पंद्रह फीसदी पर ध्यान देने की जरूरत होती है और पांच प्रतिशत पर विशेष ध्यान देने से बीमारी अधिक भयावह नहीं होती है. शायद यह सोच चिकित्सा व्यवस्था की व्यावसायिक सहजता है. मगर आम आदमी के लिए यह आसान खेल नहीं है और न ही सरकार उस पर ध्यान दे रही है.

इन दिनों कोरोना संक्रमण को रोकने के लिए दो ही रास्ते बताए जा रहे हैं, एक टीकाकरण और दूसरा सही इलाज. फिलहाल दोनों ही किसी निर्णायक स्थिति में नहीं पहुंच पाए हैं. सबसे ज्यादा उम्मीद टीके से है, जिसके भविष्य पर कोई ठोस वैज्ञानिक दावा नहीं है. ऐसे में इलाज के लिए युद्ध स्तर पर अनुसंधान और दवाइयों का अधिकाधिक उत्पादन तथा दामों पर सरकारी नियंत्रण नहीं होना बीमारी में चिंता का सबसे बड़ा कारण है. वर्तमान समय में किसी व्यक्ति के कोरोना शिकार होने का अर्थ पचास हजार रुपए से लेकर पांच लाख रुपए का खर्च है. वह भी इस अनिश्चितता के बीच कि दवाइयां कौन-सी कब मिलेंगी, किसी को मालूम नहीं. ऑक्सीजन मिलेगी, वेंटीलेटर मिलेगा या नहीं, कोई गारंटी नहीं.

इसलिए इलाज में जल्दबाजी नहीं दिखाई तो जान पर बन आना तय है. ऐसे में सवाल यह है कि यदि देश और दुनिया कोरोना के खिलाफ सही लड़ाई लड़ रहे हैं तो सबसे पहले इलाज के खर्च को कम करने की दिशा में कोई प्रयास क्यों नहीं किए जा रहे हैं. रेमडेसिवीर, जो अधिकतम चार-पांच सौ रुपए तक की कीमत में बिक सकता है, मगर वह पांच-छह हजार से लेकर चार लाख तक में बिक रहा है. फेबीफ्लू, कोविहाल्ट जैसी अनेक दवाइयां कोरोना के इलाज के लिए दी जा रही हैं, जिनकी कीमत 75 रुपए तक प्रति गोली है. किंतु कोई भी सरकार अपने अधिकारों का इस्तेमाल कर दवाओं के दामों को घटाने के लिए दबाव नहीं बना रही है. वे दवाओं के सख्ती से अधिक उत्पादन और कीमतों पर नियंत्रण के लिए कोई सख्त नीति नहीं अपना रही हैं. वे सिर्फ निजी अस्पतालों पर दबाव बनाने के अलावा किसी और से कोई अपेक्षा नहीं रख रही हैं. आरटीपीसीआर टेस्ट का खर्च चार हजार रुपए से 23 सौ रुपए पर थम गया है. एंटीजन टेस्ट चार सौ से पांच सौ रुपए के बीच चल रहा है. सीटी स्कैन के दामों पर कोई नियंत्रण नहीं है. लिहाजा बीमारी की शुरुआती जांच ही महंगी साबित हो रही है.

इन हालात से स्पष्ट है कि कोरोना के संक्रमण काल के छह माह बीत जाने के बावजूद सरकारी तंत्र आंकड़ों की दुनिया से बाहर नहीं आ रहा है. वह बीमारी के निराकरण में जमीनी जरूरतों पर ध्यान देने की बजाय आसमानी मेहरबानी पर काम चला रहा है. यदि अपना देश दुनिया को दवाइयां देने की क्षमता रखता है और स्वदेशी इलाज में सक्षम है तो संकट के समय देश की सामान्य जनता दवा और इलाज के लिए क्यों भटक रही है? छह माह बीत जाने के बावजूद बीमारी के खर्च को एक सीमा में बांधने के प्रयास क्यों नहीं हो रहे हैं? पक्ष और विपक्ष दोनों ही अपनी-अपनी सरकारों को बचाने में धरातल के संकट को क्यों नहीं समझ पा रहे? दरअसल बहलाने के आंकड़ों के आगे एक जहां और भी है, जिसमें हर कोई सहमा हुआ है. वहीं असली कोरोना और उसका डर छिपा है.

Web Title: Amitabh Srivastava blog: Where is the corona virus ahead of figures ..!

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