अमिताभ श्रीवास्तव का ब्लॉग: दो ठाकरे, एक चुनाव, किसने खोया किसने पाया!

By अमिताभ श्रीवास्तव | Published: June 2, 2019 05:32 AM2019-06-02T05:32:18+5:302019-06-02T05:32:18+5:30

करीब 53 साल पहले शिवसेना और 13 साल पहले मनसे का गठन एक समान मराठी मानुष के हितों के लिए लड़ने के उद्देश्य से हुआ था. दोनों ही दल दूसरे राज्यों के लोगों के घोर विरोधी थे. वे मराठी भाषा और समाज के रास्ते पर चल निकले थे, लेकिन मंजिल पाने के लिए जब सियासत के मैदान में कूदे तो उनके कदम डगमगा गए.

Amitabh Shrivastav Blog on Maharashtra Uddhav and Raj Thackeray Political gain and lost | अमिताभ श्रीवास्तव का ब्लॉग: दो ठाकरे, एक चुनाव, किसने खोया किसने पाया!

शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे और मनसे प्रमुख राज ठाकरे। (फाइल फोटो)

महाराष्ट्र में ठाकरे बंधुओं की अदावत किसी से छिपी नहीं है. वे राजनीति में एक-दूसरे के खिलाफ जाने के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार रहते हैं. यही वजह है कि लोकसभा चुनाव में दोनों ने अपना-अपना रास्ता पकड़ा, मगर एक शिखर पर पहुंचा और दूसरा सिफर लेकर अपने आप में गोल-गोल ही घूमता रहा. जब रुका भी तो उसके आस-पास कुछ नहीं था. अब शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे शान के साथ दिल्ली के दरबारी हो चुके हैं और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना(मनसे) प्रमुख राज ठाकरे राज्य की राजनीति की एक अबूझ पहेली बन गए हैं. 

करीब 53 साल पहले शिवसेना और 13 साल पहले मनसे का गठन एक समान मराठी मानुष के हितों के लिए लड़ने के उद्देश्य से हुआ था. दोनों ही दल दूसरे राज्यों के लोगों के घोर विरोधी थे. वे मराठी भाषा और समाज के रास्ते पर चल निकले थे, लेकिन मंजिल पाने के लिए जब सियासत के मैदान में कूदे तो उनके कदम डगमगा गए.

शिवसेना ने करीब बीस साल बाद राजनीति समझ ली और करीब 29 साल में सत्ता में हिस्सेदारी पाकर दिखा दी. यही नहीं, राज्य से निकलकर राष्ट्रीय राजनीति में भी अपना नाम दर्ज कर दिया. उसके लोकसभा और राज्यसभा में सांसद नजर आने लगे. वहीं दूसरी ओर मनसे ने संकीर्ण रास्ते से तेज भागने कोशिश आरंभ की. उसे विधानसभा चुनाव में सफलता मिली, लेकिन गति कुछ इतनी तेज थी कि आगे वह खुद ही संतुलन खोने लगी. उसे दूसरों के सहारे की जरूरत पड़ी. किंतु दूसरों ने उसे सहारा देकर मजबूत बनाने की बजाय कमजोर बना दिया. कमोबेश वही बीते चुनावों तक बरकरार रहा.

यदि आंकड़ों के हिसाब से देखा जाए तो वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में शिवसेना ने 11 सीटें जीतीं और करीब 17 प्रतिशत मत प्राप्त किए. उसी साल मनसे ने भी 11 स्थानों पर चुनाव लड़ा और किसी पर जीत न दर्ज करते हुए भी 4.07 प्रतिशत मत पाए. मगर जब 2014 का लोकसभा चुनाव हुआ तो शिवसेना 18 सीटें जीतकर अपना मत प्रतिशत 20.82 प्रतिशत पहुंचाने में सफल हो गई, जबकि मनसे दस सीटों पर चुनाव लड़कर न कहीं जीत दर्ज कर पाई और न ही अपने मत बचा पाई.

वर्ष 2014 के चुनाव में उसे केवल 1.47 प्रतिशत मत ही मिले. ताजा लोकसभा चुनावों में शिवसेना ने फिर 18 सीटें जीतीं, लेकिन उसके मतों का प्रतिशत बढ़ना जारी रहा. इस बार उसे 23.29 प्रतिशत मत मिले. हालांकि उसने पांच सीटों पर चुनाव भी हारा. उसके कई पुराने नेताओं को पराजय का मुंह देखना पड़ा, मगर उसने राष्ट्रीय राजनीति में पकड़ ढीली नहीं होने दी.

वहीं राजनीति के दृष्टिकोण से देखा जाए तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के महाराष्ट्र में सबसे पहले और बड़े प्रशंसक मनसे प्रमुख राज ठाकरे ही थे. वे महाराष्ट्र के अलावा किसी अन्य राज्य में नहीं जाते, लेकिन उन्होंने गुजरात भ्रमण का मौका हाथ से जाने नहीं दिया. किंतु इस बार जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव का समय आता गया, उनके सुर बदले ही नहीं, बल्कि बिगड़ते चले गए. करीब एक दर्जन से अधिक सभाओं में उन्होंने किसी दल विशेष को मत देने का आह्वान नहीं किया. वह केवल मोदी की आलोचना कर अप्रत्यक्ष रूप से शिवसेना और भाजपा को मत नहीं देने की अपील करते रहे.

राज ठाकरे की सभाओं की पूरे महाराष्ट्र में चर्चा हुई. कुछ जानकार उनकी सभाओं को राजनीति का नया प्रयोग, कुछ भविष्य की संभावनाओं पर चर्चा करने में जुटे रहे. मगर जब परिणाम सामने आया तो वह हम तो डूबेंगे सनम और तुमको भी ले डूबेंगे की तर्ज पर आया. वहीं दूसरी ओर सत्ता में सहभागी होने के बावजूद सरकार की आलोचना में कोई गुरेज नहीं करने वाले उद्धव ठाकरे ने चुनावी मौसम में सुर बदले, रुख बदला और सीधे संसद के सेंट्रल हाल के मंच पर जा बैठे. 18 सीटें जीतकर सत्ताधारी गठबंधन में मजबूत जगह बना ली. एक राज्यपाल का पद भी पा लिया. शपथ ग्रहण समारोह में सपरिवार मान-सम्मान पा लिया. केंद्रीय मंत्रिमंडल में एक मंत्री पद मिलने के बावजूद खामोशी रखकर अपने रास्ते भविष्य के लिए भी खुले रख लिये. साफ है कि रिश्तों की यह मिठास कुछ माह बाद होने जा रहे विधानसभा चुनाव में लाभकारी साबित होगी.

फिलहाल अब लोकसभा चुनाव की हार-जीत के बाद बाद समय आत्मचिंतन का है. यदि उसमें दिशा रचनात्मक होगी तो अवश्य ही भविष्य में परिणाम बेहतर सामने आ सकते हैं. शिवसेना और मनसे दोनों दलों ने अपनी-अपनी राजनीतिक क्षमताओं का आकलन अनेक बार किया है. शिवसेना ने भाजपा के खिलाफ विधानसभा चुनाव लड़कर देखा और वह 63 सीटों पर सिमट गई. वहीं मनसे ने अपने दम पर विधानसभा, लोकसभा चुनाव लड़कर और नहीं लड़कर भी अपनी क्षमताओं का आंकलन कर लिया है.

शिवसेना को विधानसभा के बाद जल्द ही लोकसभा चुनाव में समझ में आ गई, वहीं मनसे चार-पांच झटके खाकर भी अभी अपनी ताकत का सही अंदाज नहीं लगा पाई है और वह बार-बार अपने हितों से अधिक दूसरे के हितों के लिए अधिक इस्तेमाल हो रही है, जिससे उसकी अपनी राजनीतिक ताकत कम ही नहीं, बल्कि हाशिए पर आ गई है. फिलहाल लोकसभा चुनाव के बाद यही कहा जा सकता है कि शिवसेना का तीर निशाने पर लगा है और ‘इंजन’ को शंटिंग करने की बजाए अपनी ट्रेन पटरी पर दौड़ाने की जरूरत है. 

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