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ब्लॉग: नेपाल से पहली बार अमेरिका की नजदीकी, भारत के असहज होने के ये हैं तीन कारण

By राजेश बादल | Updated: June 7, 2022 09:25 IST

नेपाल का कोई प्रधानमंत्री बीस साल बाद अमेरिका जा रहा है. नेपाली प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा अगले महीने वॉशिंगटन यात्रा के दौरान राजनीतिक और सैनिक समझौते करेंगे.

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भारतीय विदेश नीति इन दिनों गंभीर चुनौतियों का सामना कर रही है. ये चुनौतियां पड़ोसी देश ही खड़ी कर रहे हैं. दशकों तक जिनसे हिंदुस्तान के बेहतर रिश्ते रहे, अब उन्होंने ही अपने वरिष्ठ शुभचिंतक को परेशान करने की जैसे ठान ली है. लेकिन इस बार मुश्किलें कठिन हैं. इसका कारण दोनों बड़ी शक्तियों-चीन और अमेरिका का अपने राष्ट्रीय हितों के चलते भारत के विरोध में चले जाना है. इससे आने वाले दिन अनेक चेतावनियों का संदेश दे रहे हैं. विडंबना है कि हिंदुस्तानी तरकश में मुकाबले के लिए अकाट्य तीर नहीं हैं.

अभी तक रूस बड़े और ताकतवर सहयोगी के रूप में अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारतीय विदेश नीति को स्थिरता और मजबूती देने में सहयोग करता रहा है. उसके साथ मधुर संबंध होने से चीन और अमेरिका भारत के प्रति खुलकर नकारात्मक व्यवहार नहीं दिखा पाते थे. लेकिन रूस-यूक्रेन जंग के दौरान पश्चिमी देशों और यूरोप ने जिस तरह मोर्चेबंदी की है, उससे वैश्विक परिदृश्य में रूस अमेरिका विरोधी महाशक्ति का अपना स्थान अस्थायी तौर पर खोता दिखाई दे रहा है. 

जंग का परिणाम रूस के पक्ष में गया तो संभव है कि वह अपनी पुरानी स्थिति हासिल कर ले, लेकिन फौरी तौर पर तो उसकी कमजोर होती प्रतिष्ठा का लाभ चीन को मिल रहा है. अब दुनिया के दो मजबूत छोरों पर चीन और अमेरिका आमने-सामने हैं और ये दोनों हिंदुस्तान से दूरी बनाकर चल रहे हैं. चीन और भारत रूस के पक्ष में तो हैं, मगर चीन भारत के हक में कभी खड़ा नहीं होगा. उसकी स्थिति पाकिस्तान जैसी है.

इन महाशक्तियों के भारत से दूरी बनाने तक ही बात सीमित नहीं है. वे अब भारत के खिलाफ एशिया के समीकरण बदलने का प्रयास कर रहे हैं. दशकों से भारत-अमेरिका के बीच संबंध मिलेजुले रहे हैं. कभी अच्छे तो कभी खराब. इसके बावजूद उसने नेपाल जैसे छोटे देश से सीधे सैनिक और कूटनीतिक संपर्क नहीं रखे. अब वह ऐसा कर रहा है. 

भारत इससे असहज है. इसके तीन कारण हैं -एक तो जो बाइडेन के राष्ट्रपति चुने जाने से पहले भारत ने डोनाल्ड ट्रम्प की जिस तरह प्रचार के जरिए सहायता की, उसने बाइडेन को जीत के बाद भारत का स्वाभाविक आलोचक बना दिया. इससे पहले भारत कभी भी अमेरिकी चुनाव में एक पार्टी नहीं बना था. इस मामले में विदेश नीति से विचलन उसे महंगा पड़ा है. दूसरा कारण राष्ट्रपति जो बाइडेन और उपराष्ट्रपति कमला हैरिस का भारत की कश्मीर नीति के विरोध में होना है. अनुच्छेद-370 के विलोपन के बाद ये मतभेद खुलकर सामने आए थे. 

तीसरा कारण रूस-यूक्रेन युद्ध में भारत का तटस्थ रहते हुए उसके विरुद्ध निंदा से अपने को अलग करना था. अमेरिका ने बड़े जोर लगाए, उसके राजनयिक भारत में आकर धमका गए. पर भारत ने वही किया, जो उसके हित में था. इस वजह से भी अमेरिका ने दूरी तो बनाई ही, नेपाल से सीधे पींगें बढ़ानी शुरू कर दीं. एक तीर से दो निशाने लगाते हुए वह चीन और भारत दोनों पर निगरानी का संदेश दे रहा है.

बीस साल बाद नेपाल का कोई प्रधानमंत्री अमेरिका जा रहा है. प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा जुलाई में वॉशिंगटन यात्रा के दौरान राजनीतिक और सैनिक समझौते करेंगे. खास बात है कि यात्रा के बारे में दोनों पक्ष चुप हैं. नेपाली सेनाध्यक्ष प्रभुराम शर्मा की अमेरिका यात्रा भी इस महीने होगी. इस बारे में भी कोई खुलासा नहीं किया गया. हालांकि वे पेंटागन की गोपनीय बैठकों का हिस्सा बनने वाले हैं. 

कुछ समय पहले हिंद प्रशांत क्षेत्र के 36 देशों में अमेरिकी कार्रवाई के मुखिया जॉन अक्विलिनो भी काठमांडू जा चुके हैं. उसके बाद अमेरिकी अवर सचिव उजरा जेया और तीन अन्य अफसर नेपाल के फौजी अधिकारियों से मिले थे. जाहिर है कि अमेरिकी रुख से भारत और चीन- दोनों ही सहज नहीं हैं. अमेरिका ने दशकों तक भारत और रूस पर ऐसा ही दबाव बनाने के लिए पाकिस्तान के साथ सैनिक संधियां की थीं. पर आज कंगाल पाकिस्तान अमेरिका से कुछ हासिल करने की हालत में नहीं है. इमरान खान आरोप लगा रहे हैं कि उनकी सरकार गिराने के पीछे अमेरिकी साजिश थी. ऐसे में अमेरिका फिलहाल पाकिस्तान से रिश्तों में ठंडापन बनाकर रखेगा.

वैसे तो नेपाल-अमेरिकी रिश्तों में मिठास 2017 से ही आने लगी थी, जब अमेरिका ने नेपाल को 500 मिलियन डॉलर की सहायता का समझौता किया था. इसके बाद समझौते पर संकट के बादल मंडराने लगे क्योंकि यह चीन को पसंद नहीं था. चीन समर्थक कम्युनिस्ट पार्टी नेपाल में सरकार को समर्थन दे रही है. उसने करार पर संसद की मोहर नहीं लगने दी. जब इस बरस फरवरी में अमेरिका ने समझौता रद्द करने और सहायता रोकने की धमकी दी तो ताबड़तोड़ संसद में इसे पास कराया गया. 

इन्हीं दिनों म्यांमार ने चीन की शह पर पाकिस्तान से विचित्र समझौता किया. पाकिस्तान के 15 वायुसेना अधिकारी म्यांमार की फौज को प्रशिक्षण देने जा रहे हैं. इसका आगाज मांडले वायुसेना स्टेशन से होगा. यह दल चीन में बने जेएफ 17 लड़ाकू विमानों का प्रशिक्षण देगा और उन्हें कलपुर्जे भी सप्लाई करेगा. इसके अलावा इसी लड़ाकू विमान से जमीन में मार करने वाली मिसाइलों को भी वह चीन से लेकर देगा. चीन पाकिस्तान के जरिये म्यांमार को साधकर भारत को निशाना बना रहा है.

बताने की जरूरत नहीं कि आजादी के आंदोलन में रंगून और मांडले की जेल कितनी महत्वपूर्ण रही हैं. अरसे तक म्यांमार की सेना भारत की मदद पर निर्भर रही है. ठीक नेपाल की तरह. हम उम्मीद करें कि भारतीय विदेश नीति के नियंता इर्द-गिर्द हो रही घेराबंदी से वाकिफ होंगे.

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