आलोक मेहता का ब्लॉग: सांप्रदायिक हिंसा के लिए कठघरे में पुलिस

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: March 3, 2020 07:28 AM2020-03-03T07:28:16+5:302020-03-03T07:28:16+5:30

त्तर प्रदेश पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी रह चुके एवं प्रगतिशील लेखक वी.एन. राय ने बहुत पहले 1931 से 1992 तक देश में हुए सांप्रदायिक दंगों - हिंसा पर पुलिस रिकॉर्ड पर आधारित शोध प्रकाशित किया था और उसमें भी यह तथ्य रेखांकित हुआ कि पुलिस को पूर्वाग्रही माना जाता है.

Alok Mehta's blog: Police in the dock for communal violence | आलोक मेहता का ब्लॉग: सांप्रदायिक हिंसा के लिए कठघरे में पुलिस

प्रतीकात्मक तस्वीर

महीनों तक जांच होती रहेगी कि हिंसा के लिए असली दोषी कौन है और किस संगठन एवं व्यक्तियों ने दंगों की तैयारी की. राजनीतिक दलों ने परस्पर विरोधी आरोप लगाए हैं. हमेशा की तरह सत्तारूढ़ दल और गृह मंत्नी के उत्तरदायी होने के आरोप लगे हैं. लेकिन सर्वाधिक जिम्मेदारी पुलिस प्रशासन पर ही मानी जाएगी. यों यह दावा अजीब लगता है कि ऐसी सांप्रदायिक हिंसा और पुलिस की विफलता, पूर्वाग्रही स्थिति पहली बार देखने को मिली है. उत्तर प्रदेश पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी रह चुके एवं प्रगतिशील लेखक वी.एन. राय ने बहुत पहले 1931 से 1992 तक देश में हुए सांप्रदायिक दंगों - हिंसा पर पुलिस रिकॉर्ड पर आधारित शोध प्रकाशित किया था और उसमें भी यह तथ्य रेखांकित हुआ कि पुलिस को पूर्वाग्रही माना जाता है.
 
दूसरा पक्ष यह भी है कि पुलिस पर लोगों का विश्वास बनाने में कई कर्मठ, ईमानदार, निष्पक्ष पुलिस अधिकारियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. केपीएस गिल, रिबेरो, प्रकाश सिंह, पी.के. लाहिरी, वी.एन. राय जैसे अनेक अधिकारियों ने अपनी बहादुरी एवं कर्तव्यनिष्ठा से सांप्रदायिक, नक्सल व आतंकवादी हिंसा को रोकने तथा सहयोगी पुलिस कर्मियों का मनोबल बढ़ाने में योगदान दिया है. 

यह भी सर्वमान्य तथ्य है कि लोकतांत्रिक ताने-बाने में अंतरधार्मिक संबंधों को प्रभावित करने में राजनीतिक दलों और उनके कार्यकर्ताओं की बड़ी भूमिका रही है. समाजशास्त्नी विल्किंसन की परिकल्पना रही है कि भारत में सांप्रदायिक दंगों के होने न होने का मुख्य कारण चुनावी प्रतियोगिता भी है. वहीं आर्थिक अंतरनिर्भरता सांप्रदायिक सद्भावना तथा शांति को बढ़ावा देती है. लखनऊ और बनारस में ऐसे अवसर आए हैं, जब दोनों समुदायों ने दंगे नहीं होने दिए.

जहां तक हाल की दिल्ली की सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं का मुद्दा है, पुलिस की कमियों और निष्क्रि यता से बहुत नुकसान हुआ है. फिर भी इसके लिए तात्कालिक टीका टिप्पणी के बजाय गहराई से अध्ययन और जांच के साथ भविष्य के लिए आवश्यक सुधार होने चाहिए. बहरहाल, अब चुनौती अपराधियों पर कठोर कार्रवाई के साथ हिंसा प्रभावित दोनों समुदायों के लोगों को तत्काल राहत देने, उन्हें फिर से बसाने तथा भाईचारे का माहौल बनाने की है.

दुखद बात यह है कि हिंसा और राहत के मुद्दे पर पहले की तरह सर्वदलीय प्रयास के बजाय प्रतिस्पर्धा एवं आरोपों का सिलसिला जारी है. प्रतिपक्ष औपचारिक बैठकों में मीठी बातें और वायदे करता है और बाहर निकलते ही अपने आरोप बरसाने लगता है. गंभीर हिंसा की घटनाओं के बाद दुनिया के किसी लोकतांत्रिक देश में ऐसा नहीं होता. इसलिए केवल यह कामना ही की जा सकती है कि राजनेताओं और पुलिस को समय रहते ईश्वर सद्बुद्धि दे.

Web Title: Alok Mehta's blog: Police in the dock for communal violence

भारत से जुड़ीहिंदी खबरोंऔर देश दुनिया खबरोंके लिए यहाँ क्लिक करे.यूट्यूब चैनल यहाँ इब करें और देखें हमारा एक्सक्लूसिव वीडियो कंटेंट. सोशल से जुड़ने के लिए हमारा Facebook Pageलाइक करे