आलोक मेहता का ब्लॉगः दूसरे कार्यकाल का आगाज तो अच्छा है!

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: June 9, 2019 07:22 AM2019-06-09T07:22:38+5:302019-06-09T07:22:38+5:30

ई शिक्षा नीति का मसविदा चुनाव से पहले ही तैयार हो गया था, लेकिन हड़बड़ी के बजाय सही ढंग से क्रियान्वित करने के लिए पुन: मंत्रिमंडल बनते ही शिक्षा नीति के प्रारूप को सार्वजनिक बहस, समीक्षा, सुझाव, संशोधन के लिए जारी कर दिया गया. 

Alok Mehta's blog: It is good to start a second term! | आलोक मेहता का ब्लॉगः दूसरे कार्यकाल का आगाज तो अच्छा है!

आलोक मेहता का ब्लॉगः दूसरे कार्यकाल का आगाज तो अच्छा है!

वर्तमान इक्कीसवीं सदी चालक मुक्त वाहनों की भले ही मानी जा रही हो, लेकिन वाहन हो या सरकार, नियंत्रक के हाथ में बटन को समय पर दबाने की आवश्यकता बनी रहेगी. नई सरकार के गठन के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केवल एक सप्ताह में पांच वर्षो में प्रगति की तेज रफ्तार के लिए बहुत सावधानी के साथ पहला बटन दबा दिया और सरकारी गाड़ी पहले गियर में आगे बढ़ा दी है. नई शिक्षा नीति का मसविदा चुनाव से पहले ही तैयार हो गया था, लेकिन हड़बड़ी के बजाय सही ढंग से क्रियान्वित करने के लिए पुन: मंत्रिमंडल बनते ही शिक्षा नीति के प्रारूप को सार्वजनिक बहस, समीक्षा, सुझाव, संशोधन के लिए जारी कर दिया गया. 

लोकतांत्रिक प्रक्रिया का यह पहला कदम सराहनीय है क्योंकि एक महीने का समय दिया गया है और विभिन्न स्तरों पर महानगरों से लेकर सुदूर गांवों, पंचायतों, संस्थाओं को शिक्षा नीति के ढांचे पर विचारने एवं राय देने की व्यवस्था की गई है. अच्छा ही हुआ कि चुनावी महाभारत के समय शिक्षा में भाषायी माध्यम के नाजुक मुद्दे को गर्माने की नौबत नहीं आई. बहुमत और स्थायित्व के बावजूद त्रिभाषा नीति और हिंदी को लेकर हुई सिफारिश पर अनावश्यक विवाद पैदा होते ही उसमें कुछ सुधार कर दिया गया. भाषायी माध्यम तो भारतीय समाज की व्यापकता और कुछ जटिलताओं के साथ तय होता रह सकता है. 

असली मुद्दा है, पिछले दशकों में बनती-बिगड़ती बेढंगी शिक्षा नीति को दूरगामी हितों और भावी पीढ़ी के उज्ज्वल भविष्य के लिए निर्धारित करना. शिक्षा नीति पर पूर्ववर्ती सरकारों ने जाने कितने आयोग, समितियां बनाईं और उनकी अधिकांश सिफारिशें फाइलों में धूल खाती रहीं. फिर राज्यों का अधिकार होने से कुछ प्रदेश शिक्षा व्यवस्था में सुधार और सुविधानुसार विभिन्न कार्यक्रम, व्यवस्था लागू करने में एक हद तक सफल हुए और कुछ राज्य फिसड्डी बने रहे. अब जन भागीदारी और निश्चित दिशा तय होने पर शिक्षा व्यवस्था सही पटरी पर चलने की आशा की जा सकेगी. यों आजादी के लगभग 72 वर्षो के बाद शिक्षा और स्वास्थ्य हितों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एकरूपता के लिए संविधान में आवश्यक संशोधन पर विचार होना चाहिए. अमेरिका, चीन जैसे बड़े देशों में भी क्षेत्रीय अधिकारों के बावजूद शिक्षा और स्वास्थ्य की नीतियों, योजनाओं में कोई अंतर नहीं है.

स्वास्थ्य संबंधी आयुष्मान भारत जैसी आदर्श योजनाओं को लेकर कुछ राज्य सरकारों द्वारा अड़ंगेबाजी एवं लागू न करने के फैसले बेहद दु:खद हैं. योजना का नाम क्या हो और इसका श्रेय किसे मिले- इस संकीर्ण मानसिकता से करोड़ों लोगों को जरूरत पड़ने पर श्रेष्ठतम चिकित्सा सुविधा का लाभ देने से वंचित करना अन्याय है. जो असहाय गरीब, नेता या अस्पताल का नाम तक नहीं पढ़ सकते, उन्हें जीवन रक्षा का अधिकार देने पर रोक बेमानी है. तर्क दिया जा रहा है कि गैरभाजपाई सरकारें अपने सरकारी अस्पतालों को अधिक सक्षम और चिकित्सा सुविधा संपन्न कर देंगी.

पिछले 50 वर्षो में सरकारी अस्पतालों में जाने वालों की संख्या कई गुना बढ़ गई, डॉक्टरों एवं अन्य चिकित्सा कर्मियों और मशीनों का अभाव है. उसे कोई भी सरकार फटाफट कैसे ठीक कर देगी. इसलिए स्वास्थ्य की योजनाओं को संसद और जरूरत होने पर सर्वोच्च अदालतों के निर्णय से एकरूपता के साथ लागू किए जाने का फैसला होना चाहिए. निश्चित रूप से सरकारी अस्पताल, प्राथमिक चिकित्सा केंद्र, आयुर्वेद-यूनानी, होमियोपैथी-प्राकृतिक चिकित्सा केंद्रों को भी अच्छे से अच्छा बनाया जाए और विशाल देश में निजी अस्पतालों को कड़े नियमों की छाया में विकसित होने दिया जाए.

दूसरी तरफ प्रधानमंत्री ने रोजगार और अर्थव्यवस्था को लेकर उठ रही चिंताओं के समाधान एवं सर्वागीण विकास के लिए विभिन्न मंत्रलयों में समन्वय के साथ सुनियोजित कार्यक्रम बनाने के लिए उच्चस्तरीय समितियों का गठन कर दिया है. मंत्रलयों को एक महीने में अपनी भावी कार्य योजना बनाकर प्रस्तुत करने के लिए कहा गया है. यह भी आदर्श लोकतांत्रिक कदम है, ताकि मंत्रलयों में खींचातानी से योजनाएं खटाई में न पड़ें और क्रियान्वयन समयबद्घ हो. आश्चर्य की बात यह है कि समितियों में मंत्रियों की भागीदारी या महत्ता को लेकर राजनीतिक प्रदूषण फैलाने की कोशिश हुई. जैसे रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह को पहले दो समितियों में रखने की घोषणा हुई और फिर कुछ आशंकाएं उठने पर आठ समितियों में शामिल कर दिया गया. 

निश्चित रूप से अमित शाह गृह मंत्री के रूप में सर्वाधिक महत्वपूर्ण रहेंगे और वर्षो से नरेंद्र मोदी के साथ निकट से काम करने के कारण सरकार के कामकाज को सुचारु एवं सफल ढंग से चलाने में अहम भूमिका निभाएंगे. लेकिन अनुभवी नेता और पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह और नितिन गडकरी को मिली जिम्मेदारियां कई मायनों में अधिक महत्वपूर्ण हैं. रक्षा और सड़क परिवहन-जल परिवहन के मंत्रलयों के पास सर्वाधिक बजट का प्रावधान होता है. विकास के लिए सड़क प्राणतंत्र की तरह है. पारस्परिक विश्वास होने पर ही रक्षा, वित्त, विदेश और अरबों रुपयों के खर्च से जुड़े सड़क परिवहन या रेल मंत्रलयों की बागडोर सहयोगियों को सौंपी जाती है. आवश्यकता इस बात की है कि राष्ट्र के सर्वागीण विकास के लिए मंत्रलयों में ही नहीं, संसद में भी सहमतियों-असहमतियों, चर्चा, बहस, संशोधनों के साथ विकास की गति को आगे बढ़ाने के लिए प्रयास हों.

Web Title: Alok Mehta's blog: It is good to start a second term!

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