ब्लॉग: गुट निरपेक्षता के बाद अब गुट सापेक्षता का दौर

By रहीस सिंह | Published: August 17, 2023 10:43 AM2023-08-17T10:43:52+5:302023-08-17T11:03:11+5:30

बता दें कि आज का युग गैर-संभ्रांतिक प्रतिस्पर्धाओं वाला युग है जिसमें सफल होने के लिए नई स्ट्रेटेजी के साथ-साथ नई केमिस्ट्री की भी जरूरत होगी जिसका सैद्धांतिक ही नहीं बल्कि अंकगणितीय मूल्य भी हो।

After non-alignment now the era of factionalism | ब्लॉग: गुट निरपेक्षता के बाद अब गुट सापेक्षता का दौर

फोटो सोर्स: ANI (प्रतिकात्मक फोटो)

Highlightsयूक्रेन रूस युद्ध ने दुनिया को दो गुटों में बंट गया है। ऐसे में भारत की विदेश नीति का अहम विषय वसुधैव कुटुंबकम का है।इसका संदेश वही है कि ‘यह युद्ध का युग नहीं है’ और वास्तव में भारत की विदेश नीति का यही सार है।

भारत की विदेश नीति के संदर्भ में यह मानकर चला जाता है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की दुनिया जब दो ध्रुवों में बंट रही थी, उसी दौर में भारत आजाद हुआ तथा इस विचार के साथ आगे बढ़ने का निर्णय लिया कि ‘....हमें शांति और सभ्य व्यवहार की आवश्यकता है, हम युद्ध नहीं चाहते.’ 

यूक्रेन रूस युद्ध ने दुनिया को दो गुटों में बांट दिया है

आज यूक्रेन की धरती पर एक युद्ध लड़ा जा रहा है और यह युद्ध केवल रूस और यूक्रेन के बीच नहीं है बल्कि यहां पर भी दो दुनियाओं का विभाजन स्पष्ट दिख रहा है. आज के इस दौर में भी भारत की विदेश नीति का अहम विषय वसुधैव कुटुंबकम का है और संदेश वही कि ‘यह युद्ध का युग नहीं है.’ वास्तव में भारत की विदेश नीति का यही सार है. 

लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि भारत किसी एक जगह पर ठिठका हुआ है बल्कि उसने गुट निरपेक्षता की विदेश नीति से लेकर ‘पॉलिसी ऑफ एक्ट फॉरवर्ड’ तक का सफर तय किया है जिसमें ‘राष्ट्र प्रथम’ की प्रबल भावना होने के साथ-साथ आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास का प्रभावशाली संदेश भी छुपा है तथा वे वैश्विक चिंताएं भी जिनका दुनिया सामना कर रही है या फिर आने वाले समय में कर सकती है.

भारत की विदेश नीति कैसी है

तकनीकी दृष्टि से तो भारत की विदेश नीति का इतिहास बहुत लंबा है लेकिन सामान्य तौर पर इसे 1991 से पहले और बाद के कालखंडों में बांट कर देखा जा सकता है जिसमें 1991 की भारतीय विदेश नीति ने कई करवटें बदली हैं. स्वतंत्रता के बाद से लेकर सोवियत संघ के विघटन के काल तक भारत ने संतुलन के साथ-साथ शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की नीति का अनुसरण किया और गुटनिरपेक्षता की नीति को चुना. 

लेकिन 1989 में बर्लिन की दीवार गिरने और 1991 में सोवियत संघ के ढह जाने के बाद दुनिया वाशिंगटन केंद्रित हो गई. स्वाभाविक रूप से भारत का भी झुकाव वाशिंगटन की तरफ हुआ लेकिन मॉस्को की कीमत पर नहीं. मई 1998 में पोखरण-2 के जरिये भारत ने दुनिया को एक नया संदेश दिया. 

भारत ने अपनी परमाणु शक्ति का दिया प्रमाण

यद्यपि भारत ने ‘नो फर्स्ट यूज’ और ‘मिनिमम डेटरेंस’ नीति के जरिये दुनिया को अपने परमाणु शक्ति होने का अभिप्राय समझा दिया था लेकिन वाशिंगटन तथा उसके कुछ सहयोगियों ने भारत पर प्रतिबंध लगा दिया. लेकिन जल्द ही वाशिंगटन ने अपना रुख बदला और तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की भारत यात्रा संपन्न हुई. 

इसी कड़ी में अमेरिका के साथ हुई सिविल न्यूक्लियर डील को भी देख सकते हैं. आत्मविश्वास की विदेश नीति का दूसरा चरण मुख्य रूप से वर्ष 2015 के ‘लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट’ के साथ शुरू हुआ विशेषकर तब जब अमेरिका ने भारत को अपना ‘मेजर डिफेंस पार्टनर’ कहा.

विश्व बैंक के अर्थशास्त्रियों ने क्या कहा

दरअसल वर्ष 2008 सही अर्थों में विश्व व्यवस्था के संदर्भ में एक विभाजक वर्ष था. इसने दुनिया को मोटे तौर पर यह संदेश दे दिया कि अब पुरानी व्यवस्था समाप्त हो रही है. हालांकि नई व्यवस्था कैसी होगी, यह उस समय तक तय नहीं था. लेकिन विश्व बैंक के अर्थशास्त्रियों ने यह घोषणा कर दी कि विश्व अर्थव्यवस्था अब डि-कपल्ड हो चुकी है अतः इसके संयोजन और सहयोग में क्षेत्रीय अर्थव्यवस्थाएं महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगी. 

इन्हीं विमर्शों और घोषणाओं के बीच भारत और चीन का नाम आया जो उस समय तक क्रमशः ‘वर्ल्ड्स‌ ऑफिस’ और ‘वर्ल्ड्‌स इंडस्ट्री’ की हैसियत प्राप्त कर चुके थे. तकनीकी दृष्टि से ये दोनों एक-दूसरे के पूरक थे. शायद इसे ही देखकर गोल्डमैन सैच्स के जिम ओ नील ने ‘ब्रिक’ की परिकल्पना की जिसमें भारत और चीन के साथ रूस तथा ब्राजील भी शामिल थे.

भारत के विदेश नीति में ‘एक्ट ईस्ट’ और ‘लुक वेस्ट’ का क्या है रोल

इस संपूर्ण दौर में भारत की विदेश नीति में ‘एक्ट ईस्ट’ और ‘लुक वेस्ट’ प्रमुख तत्व बने. साथ ही यूरोप के साथ अन्योन्याश्रितता (रेसिप्रोकैलिटी) और सुसंगतता (कम्पैटिबिलिटी) के रिश्ते बने जो भारत के हितों के अनुकूल थे. परंतु हिंद-प्रशांत क्षेत्र में निर्मित हुई समस्या अभी शेष थी जिसका कारण चीन था. 

दरअसल चीन असीमित इच्छाशक्तियों से संपन्न हो और अर्थव्यवस्था की नींव पर निर्मित सैन्य क्षमता व आक्रामकता का प्रदर्शन करने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में दबदबा बनाना चाहता था. इसी महत्वाकांक्षा ने चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग को असीमित इच्छाशक्तियों वाला शासक बना दिया जो सीपीसी की 20वीं कांग्रेस में घोषणा करता है कि वर्ष 2049 तक चीन दुनिया को नेतृत्व देने वाली शक्ति बनेगा. 

चीन को भी हम कम नहीं आंक सकते 

यदि ऐसा है तो भारत को वर्ष 2047 तक भारतीय विदेश नीति को उस मार्ग पर ले जाने की जरूरत होगी जो चीन को रोक सके. हालांकि भारत की तैयारी है, लेकिन चीन को भी कमतर नहीं आंका जा सकता. फिलहाल विदेश मंत्री एस. जयशंकर के अनुसार भारत की विदेश नीति ‘एडवांसिंग प्रॉस्पैरिटी एंड इन्फ्लुएंस’ की विशिष्टता के साथ आगे बढ़ेगी. 

किन बातों का रखना है ध्यान

स्वाभाविक है कि ‘गुटनिरपेक्षता’ के तत्वों पर कम बल दिया जाएगा. होना भी चाहिए क्योंकि यह युग निरपेक्षता का नहीं बल्कि सापेक्षता का है. इस दिशा में प्रधानमंत्री का ‘थिंक बिग, ड्रीम बिग, एक्ट बिग’ का मंत्र विदेश नीति को एक नया आयाम दे सकता है. 

लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि आज का युग गैर-संभ्रांतिक प्रतिस्पर्धाओं वाला युग है जिसमें सफल होने के लिए नई स्ट्रेटेजी के साथ-साथ नई केमिस्ट्री की भी जरूरत होगी जिसका सैद्धांतिक ही नहीं बल्कि अंकगणितीय मूल्य भी हो.
 

Web Title: After non-alignment now the era of factionalism

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